ब्रह्मसूत्र प्रवचन भाग २ | Brham Sutra pravchan Part -2

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Brham Sutra pravchan Part -2 by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तत्वमसि, अह्‌ ब्रह्मास्मि आदि जो ब्रह्मनिरूपक वचन है वे हो हमारे अन्त.करणमे ब्रह्मप्रमा उत्पन्न करनेमे समय हैं । वे ब्रह्म- निरूपक “ब्द ' ही वेदान्तके नामस जाने जाते हैं । वेदान्तकरो वेद क्यो नही बोलते ? बोल सकते ह परन्तु प्रत्येक वेदवाक्य वेदान्त नही होता । वेद सामान्य है भौर वेदान्त प्रकृष्ट । वेद सव प्रकारके अधिक्रारियोके ल्िएहै जबकि वेदन्त एक विशेष अधिकारी ( ब्रह्मजिज्नासु )के लिए है । वेद ससे पहिले रागी अधिकारीको देखत्ता है । रागीको धन भी चाहिए, भोग भी चाहिए ओर भोगके प्र्तिबल्धकी निवृत्तिके लिए क्रोध भी । रागीको केवल धनसे सुख नही होता वयोकि प्रतिबन्ध रहते न तो धनका भोग होता है भौर न सुख । एक वार हम कोई २५ साधु एक सेठके घर गये । वह सेठ तो बहुत उदार था । साधु लोग कोई एक-एक सेर खीर खा गये । किन्तु उवर उस सेठको दो सुखी रीटी चौबीस घण्टोमे मुश्किलसे हुजम होती थी | तो रागवद् सब लोग घन, भोग भौर प्रतिबन्ध-निवुत्तिके लिए प्रयत्नशील होते है। ऐसे लोगोके लिए वेद कहता है : 'बावू, तुम छोग स्वगं चले जाभो ! वहाँ घन भी खूब है भौर भोग भी ज्यादा मिलेगा, प्रतिबन्ध भी वहाँ नहीके बराबर है । क्यो धरतीपर घन ओर भमोगके लिए लोगोको तकलीफ देते हो ?” लोगोने आपत्ति को कि “क्या वेद लोगोमे स्वगंकी अप्सरा, स्वर्गका अमृत, स्वगका भोगानुकूक दिन्य-देह्‌ इत्यादिको वासना पदा नही करता ?' तो कहा कि यह्‌ विहित भोगकी वासना हैः अतः अधमं नही है । इसमे आइचयं यह्‌ है कि स्वके सुखभोगके लिए मनुष्यको इस रोक ओर इस जीवनके रागप्राप्त जो विहित भोग हैं उसमें भी त्यागभावसे भोग करना पड़ता है अथवा वेदान्तमोमांसा-शाश््र 1 ( ७




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