कुछ दिन और | Kuch Din Or

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Kuch Din Or by मंजूर एहतेशाम - Manjur Ehtesham

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कुछ दिन गौर : सबसे पहले इन दोनों को निकालूंगा ।”” राजू की परेशानी उनके चेहरे-मोहरे और रोज़ की ज़िन्दगी में भी भलकने लगी थी । अव वहं खाना खाते-खाते नाराज होकर बर्तन तोड़ देते, युलदान चकनाचूर कर देते । एक दिन किसी वात पर नाराज़ होकर उन्होने रेडियो-ग्राम लतं मार-मारकर रोड डाल था । बस, सेज़ रात को मेरे सामने राजू अपने आपको वखेर देते । “वैसे सब वक़्ती है, थोड़े दिन में ठीक हो जायेगा, लेकिन” और उनकी आवाज़ खो-सी ज़ाती “लेकिन अगर यह सब खत्म भी हो जाये, सव वर्वाद हो जाय, लुट जाय, तो भी अगर तुम हो तो मु कोई दुःख नहीं होगा । मैं यह सव हजार वार तुम्हारे पैरों में डाल सकता हु ।”” राजू की मम्मी इस उम्मीद पर कि अब कुछ होता है, अब कुछ हो जायेगा--पहुले तो जायदाद को इकाइयों में वंट कर विकता देखती रही थीं, फिर शायद उन्हें लगा होगा कि ढलान पर लुढ़कते बड़े से पत्थर का कहीं वीच में ही रुक जाना सम्भव नहीं, वलिकि जो छोटे-मोटे पत्थर उसकी लपेट में आ जाते हैं, वह भी उसी के साथ नीचे की ओर लुढ़कते जाते हैं । अन्त में राजू ने जच घर के वाहर वाली दुकानें भी वेचनी चाही थीं जो कानूनन मम्मी की प्रापर्टी थीं तो मम्मी ने साफ इंकार कर दिया था । “जानती हो, वुढ़िया क्या कह रही थी ? ” उस रात राजू ने तीन-चार सिग्रेट एक के वाद एक फूकने के वाद कहा था, “कह रही थी, कुछ हुक दीदी का भी है और उसे भी कुछ मिलना चाहिए । चादी जसे दीदीने खुद अपने पैसे से की हो ! सब साले ऐसे ही हैं ।” एकदम निराशा उनके शब्दों में जैसे गहरी हो गयी थी, “कुछ दिनों की वात है, कोई साला ये नहीं समभता । अभी तो हमारी हालत घर वालों को ही मालूम है ना--कल जव वड़ी उघारी बालों को पंसा नहीं मिलेगा, तो छोटे-छोटे भी फौज लेकर हमला कर देंगे । फिर अयिगा मजा ! दिवालिया ! सब्र नीलाम हो जायेगा । साले, सर छुपाने को किसी को जगह नहीं मिलेगी ! हो जाय--- हमने भी सोच लिया--अब तो ऐसी ही हो जाये ।' कर्जा-कर्जा-कर्ज़ा । पता नहीं । किन-किन का कितना, कितना राजू पर निकलता था । रात में अब राजू सोते से चौंक-चौंक कर जागने लगे.




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