कसाय पाहुड सुत्त | Kasaya Pahuda Sutta
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
54 MB
कुल पष्ठ :
1036
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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इसी बीच सन ४०८ में मैं सद्दारनपुर जैनयुवक समा जकी रसे पु पशु पर्वमें शास्त्रं-
प्रवचनके लिए झामंत्रित किया गया । बहास श्रीभुख्वार सा० से भिलनेके लिये सरसावा
भी गया झर उस वर्ष घटित हुई घटनाओंकी सुनाया । जयधवलाके प्रेसकापी कर लनेकी बात
सुनकर श्री० मुख्तार सा०ने श्रपनी इच्छा व्यक्त की कि यदि आप जयधवलामेंसे कसायपाहुड
मूल श्रौर उसकी चूर्शिका उद्धार करके और अनुवाद करके हमें दे सकें, तो हम वीर सेवा-
मन्दिरिकी श्रोरसे उसे प्रकाशित कर देंगे । मैंने उनको इसकी स्वीकृति दे दी । श्नुवाद,
टिप्पणी श्रादिके विषयमें विचार-विनियम भी हुमा और एक रूप-रेखा लिखकर मुझे दे दी
गई कि इस रूपमे कायं होना चाहिए । मैँ उस रूप-रेखा को लेकर वापिस श्चमरावती श्रागया।
दिनम धवला-श्राफिस जाकर धवनके शअुवाद चीर सम्पादनका काये करता श्र रातमें
घर पर कसायपाहुडके चूर्णिसूत्रोंका संकलन करता । चुणिसूत्रींके संकलन करते हुए यह अनुभव
हुआ कि उनका ६० हजार प्रमाणवाली विशाल जयघबला टीकामेंसे छांटकर निकालना सागर-
में गोता लगाकर मोती बटोरने जैसा कठिन कार्य दै । यद्यपि सन् ४१ के भादपद शुक्ला १३
को मैंने चूर्णिसूजोंका संकलन पूरा कर लिया, तथापि सैंकड़ों स्थान संदिग्ध रहे कि वे चूशिसूत्र
हैं, या कि नहीं ? मैंने इसकी सूचना श्री० मुख्तार सा८ को दी, उन्होंने मुके सरसावा
बुलाया ) मैने वहां जाकर वृरगिसूत्रोकी कापी दिखाई ओर साथमे संदिश्य स्थल । अन्तम यह
तय हृश्रा कि मूडबिद्री जाकर ताङ़पत्रीय प्रतिसे चूर्णिसूत्रोका मिलान कर लिया जाय श्रोर
वहां जाने-श्ननिके व्ययका भार वौरसेवा-मन्दिर वहन करे । सन् ४२ की फरवरीमें में अ्रमरा-
वतीसे भूडबिद्री गया शौर वहां १५ दिन टहर्कर स्व० श्री° पंन्लोकनाथजी शास्त्री श्रौर
नागराजजी शास्त्रीके साथ बैठकर ताडपत्रीय प्रतिसे चूर्णिसूत्रोंका मिलान करके वापिस
'ागया और घरपर घवलाके प्रूफ-रीडिंग आादिसे जो समय बचता, उसमें चूर्णिसूत्रोंका
अनुवाद करने लगा । जब कुछ अंशका श्रनुवाद तैयार हो गया, ता मैंने उसे श्री मुख्तार
सा० के पास भेज दिया । साथ ही उनके द्वारा बतलाये गये टाइपोंमें एक नमूना-पत्र भी मुद्रित
कराया और उसे देखने के लिये उनके पास भेज दिया । जब प्रन्थका प्रेसमें देनकी बात श्री०
मुख्तार सा० ने पत्रमें लिखी, ता मेंने उनसे यद्द पूछना उचित समभका कि प्रन्थके ऊपर मेरा
नाम किस रूपमें रहेगा । उनका उत्तर झाया कि प्रन्थके ऊपर ता “सम्पादक' के रूपमें मेरा नाम
रहेगा । हां, भीतर अनुवादादि जा काय आप करेंगे उस रूपमें झापका नाम रहेगा । मुझे तो
इस 'सम्पादक' नामसे पहलेसे ही चिढ़ थी, कि आखिर यह क्या बला है ? तब मैंने 'सम्पादक
और प्रकाशक' शीर्षक एक छोट! सा लेख लिख करके अनेकान्त में श्रकाशनाथ श्री मुख्तार सा०
को भेजा । उन्होंने न तो उसे अनेकान्तमें प्रकाशित ही किया; न मुक कई उत्तर दिया ।
प्रत्युत प्रो० हीरालालजी को एक बन्द पत्र लिखकर उस लखकी सूचना उन्हें दी ओर लिखा कि
ऐसा ज्ञात होता है कि आपका शरीर उनका कोई सत-भेद सम्पादकके नामकों लेकर हो गया है ।
श्रोर न जाने क्या-क्या लिखा ? भाग्यकी बात है कि जिस समय यह पत्र आया उस समय सें
'र प्रो० सा० श्रामने-सामने बैठे हुए प्रमि-मिलान कर रहे थे । श्री मुख्तार सा०्के अक्षर पहि-
चान करके उन्होंने उसे तत्काल खोलकर पढ़ना प्रारम्भ किया श्र ज्यों ज्यों वे उसे पढ़ते गये,
उनके बदले हुए भावोंकी छाया मुखपर अंकित होती गई। मैं यदद सब पूरे ध्यान सेदेख
रहा था । पत्र पढ़ चुकने पर उन्होंने पूछा -- क्या आपने कोई लेख इस प्रकारका पत्रोंमें प्रकाश-
नार्थं भेजा है ? मैंने सब बातें यथा रूपमें कहीं । सुनकर बोले राप उस लेखको वापिस
मंगा लीजिये । मैंने कद दिया, यह तो संभव नहीं है। मेरा उत्तर सुनकर वे कुछ अप्रतिभसे
दोकर बलि-उब ऐसो अझतस्थामें यदां कार्य करना संभत्र नदों ! बात बढ़ चली आर मेरा धवलां
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