धर्म - फल - सिद्धान्त | Dharm - Fal - Siddhant

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Dharm - Fal - Siddhant by पं. माणिकचन्द्र जी - Pt. Manik Chandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्ट मे| कषैवार सम्मेदशिसर श्रारि तीर्थोकी यामा की, उद्यापन भी वयि! दोनो समय दशन, जाप्य, का नियम था) समाधि मरण के तिन भी जिन-दर्शन किये । सभी कुटुम्बी उनकी श्याक्षा पालते थे। धन फुटम्बियीं में उनका तीनरराग नदीं था} सद परिशाम' अच्छे रहते थे। माता जी के ध््गोरोहण से दोनों पुत्रों को शोक हृश्रा। देसे शभ-मावो पूरे श्राशोरद देने बीं श्रातो फ न्यूनता 21 ““जगदर्थिरम्‌ । * परिडत जी सदा से टी धम-सेवन फरते रदे । प्रतिदिन प्श्च-स्तोनों-छा पाठ, जाप्य, ध्यान, सिनार्चा, स्वाध्याय षा नियम उनका जीवन भर निभ गया था । सम्मेदशिखर जी, गिरनारजी 'चम्पापुर, पावाघुर, शुझय 'आदि देनो फी वन्दनायें फी थीं] सथा 'प्रय घुटटम्यीजनों को सीयै-यात्रा घमेंसेवन में लगाये रहते थ्रे, सन्तान को उचित शिक्षा-सम्पन्न सदाचारी बनाया । परिटत जी ने चाषलीमे एक णेटा सा श्रौपधालय पोल रसा था। पिना मूत्य श्वीपथिया घाटा करते थे। वन्चों की बीमारी को शीघ्र दूर कर देते थे। दो दो चार चार कोस के रुग्णा घच्चे लाये जाया फरते थे । परिडत जी की चिकित्सा से बे '्ारोग्य पाते थे, फितने ही गरीयों पर व्याज छोड़ देते थे । ” सेठ पद्मच द्व जी थादि के सादर घुलाने पर परिडत जी सनि वार यार दशलदण-यवै मे श्रागय गये । शास्र भ्रक्चनं किया। आगर वालो ने प्रसन हर पणिडित जी फो “तिद्रात- धारि पदवी से सुशोभित करिया! परिडत जी को समझाने




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