निश्चयधर्म का मनन | Nishchayadharm Ka Manan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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निश्वयधमका मनन । ६५ होता है, दु्तरे किप्तीको न उससे लाम होता है और न हानि, ने दुसरा उसमें कोई अतराय डाठ सक्ता है, इसतरह मैं अपनी दिमू- हिका आप दी भोक्ता हू । मैं कितना भी चाह मिं दूसरा कोई उस्तका भोग कर छे पर मेरी सम्पदाकों दूमरा कोई भोग नहीं सक्ता | मैं अपने अनीन्द्िय घनका आप ही व्यापारी और आप ही भोक्ता होता हुमा साप ही परमानन्दका विक्त इता हं । व्यवहा उन्मत्त जीव कहते है कि मैं राग इरता हर, मै देष करता ह, मै दया करता ह्ह, मैं हिंसा करता हू, अथवा मैं मकान बनाता हू, मैं सामूपण गढता हू, मैं वख्र बनाता ह मैं मिठाई बनाता हू, इत्यादि कथन से करुपनानाल है | मेरा वीतरागमई स्वरूप शुद्ध है इसलिये मैं शुद्ध शान दशेनमई परिणतिफे सिवाय और परिणामकों कभी नहीं करता हू। जो दस्त निस स्वमादरूप होती है. उसका बेसा ही परिणमन होता है, जेसे-चेतनाका चेतनरूप, अचेतनाका अचेतन रूप । जव मैं शुद्ध चिन्मात्र पिंड ह, तब जैसे झुद्ध सुवर्णके बने कड़े कुडठ आादि सत्र ही आामूपण उस झुद्ध सुवर्णमई ही होंगे उसीतरह मेरी शुद्ध चेतन्य धातुसे रचे हुए सबे ही भाव शुद्ध 'चेतन्यमई होंगे । व्यवद्दारमें उठझे हुए जीव कहते है कि मैं मनु- प्य हु, देव हु, नारकी हू, पद टू, मैं मूखे हू, प्रवीण हू, में राना ह, मैं रक हु, मैं सब हू, निषेल हू मैं योडा ह, मैं फायर द्व, मैं वधा ट्व, मैं खुला हल, मैं निरोगी हर, मैं पुण्यात्मा हु, मैं पापी हू, मैं मागवान हर, में अमागी ह्व इत्यादि, सो यह सर्व उन्मत्तेकिसे वचन हैं। मैं इन कही हुईं बाहोंको आदि लेकर किसी भी विकार रूप परिणितिमें न...” ^ निदोप सहन ही चिदानन्द्पर का




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