बापू और मानवता | Bapu Aur Manawata

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Bapu Aur Manawata by कमलापति शास्त्री - Kamlapati Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बापु चीर मानवता । ¢ सन्तरण करते हृए भारत मे सुदूर गाँवों और 'छक्रीका के जंगलों तक पहुँचने लगे तो धीरे धीरे अन्तर्राष्ट्रीय चेतना भी जागरित होने लगी । क्रमशः मनुष्य अन्तर्ाघ्रीय सहयोग, सहायता चर रका का खप्न देखने लगा । समस्त मानव-जाति की एकसुत्रता की ्ुभूति होने लगी और समय राया जब सारी धरत्री एक परिवार की श्रौर जगत्‌ मेँ विश्व व्यवस्था कौ कल्पना भी उदौयमानं होने लगौ । ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र मेँ मनुष्य को आशातोत सफलता भिली । कालपरवाह से विलीन हुए अतीत के सददस्राब्दियों का चित्र अपने ज्ञान की तूलिका से उसने चित्रित कर डाला, धरती का जीवनचरित लिख डाला, विकास-गति की रूपरेखा अंकित कर डाली, प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन कर डाला और जीवन की उस गृ दृता मेँ भवेश किया जो अव तक दृश्य जगत्‌ से स्था प्रथक्‌ ओर बुद्धि के लिए अज्ञात था। विश्व का यह सरूप आआशाप्रद नहीं है तो क्या है ? मनुष्य की ाद्शंवादिता, बुद्धिशीलता और उन्नति का उच्ज्वल प्रदशन स्पष्ट है । पर जहाँ उसका यह स्वरूप है वहीं दूसरी ओोर इससे भिन्न रूप भी है जिसकी उपेक्षा असंभव है । जगत्‌ के दुःख और उसकी दरिद्रता का निवारण तो दूर रहा हम ऐश्वये के मध्य सें छाभाव का. विकराल और रोमांचक स्वरूप सामने पाते है । भले ही एक छोर विलास का मूला पढ़ा हुआ दो झोर कुछ लोग लक्ष्मी की लील लीला में लिप हों पर भूखों ओर नंगों की अपार भीड़ इतनी विशाल है कि उनके करुण क्रंदन से प्थ्वी प्रकम्पित हो रही है । जटराभि की लपलपाती ज्वाला से सारा मानव-समाज भस्म हुआ दिखाई देता है। भले दी उपभोग्य वस्तुओं का निर्माण प्रचुर मात्रा में होता हो, उत्पादक देशों के व्यावसायिकों के गोदाम उत्पन्न पदार्थों से पढ़े पढ़े हों, विस्तृत भूप्रदेशों में खड़ी फसलें लहदसद्दा रही हों, लाखों मन सोने- चोद का लेन-देन हता रहता हो, पर व्यापक किन्तु अभागा जन-समूह अभावे की श्राग मंदी जलता रहता हैः । वह उत्तरोत्तर साधनहीन




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