शुक्लोत्तर हिन्दी आलोचना के विकास में आलोचना पत्रिका का योगदान | Shuklottar Hindi Aalochana Ke Vikas Men Aalochana Patrika Ka Yogadan

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Shuklottar Hindi Aalochana Ke Vikas Men Aalochana Patrika Ka Yogadan by विश्वनाथ शर्मा - Vishwanath Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शुक्लोत्तर हिन्दी आलोचना के विकास में 'आलोचना' पत्रिका का योगदान“ % प्रकट करने और उनके गुण दोष परखने में समालोचकों ने उठा नहीं रक्खा | ओर प्रायः सभी कवियों की रचनाओं के पढ़ने में साधारण पाठक एवं विद्यार्थी तक इन समालीचना ग्रन्थो से उनके गुण-दोष भली भाँति समझने में समर्थ होते हैं ।” “ स्पष्ट है कि मिश्रबन्धुओं की दृष्टि में आलोचना “रचना का मर्म प्रकट करने वाली ओर उनके गुण दोष को परख करने वाली होनी चाहिए। सी आलोचना पाठकों के लिए ही नहीं, रचनाकारों के लिए भी उपयोगी होती है । मिश्रबन्धुओं ने इस प्रसंग में आगे कहा है-भविष्य के लेखकों ओर कवियो के लिए समालोचना गुरु का काम करती है | क्यों कि उन्हें यह सिखलाती है कि किस प्रकार की रचना अच्छी है, और सभ्य समाज में आदर पा सकती है। मिश्रबन्धुओं की समालोचनात्मक दृष्टि नैतिकता के बावजूद अन्य समीक्षकों की अपेक्षा अधिक साहित्यिक थी | वे रस-परम्परा के अनुयायी थे और स्थायी भाव, आलम्बन उद्दीपन आदि के 'घेरे में कविता को देखने के पक्षपाती थे | पं. पदूमसिंह शर्सा प॑. पद्‌मसिंह शर्मा नये युग से थोडा-बहुत प्रभावित थे, लेकिन मूलत उनका झुकाव हिन्दी की रीतिकालीन कविता कौ ओर था। कहने की जरूरत नहीं है कि रीतिकालीन कविता सामन्तो के दरबार में रची गई । सामम्ती कविता भी जिसकी विशेषता काम- क्रीडा कां चित्रण करना था शर्मा जी की साहित्यिक विचारधारा ओर आलोचनात्मक दृष्टि का चरम प्रतिपालन उनकी आलौचनात्मक कृति “बिहारी सतसई : तुलनात्मक अध्ययन' मे हुआ है | शर्मा जी ने बिहारी की सतसई की आलोचना करने के पूर्व द्विवेदी काल के श्रृंगार विरोधी विचारों का खण्डन कर दिया है। स्पष्ट है उनकी समीक्षा दृष्टि में युग का प्रभाव लक्षित नहीं होता । पद्मसिंह शर्मा ने श्रृंगार रस का गला घुटते हुए देख उसकी रक्षा के लिए उसे अपने लेखों का कवच पहनाने की चेष्टा करते हुए “बिहारी की सतसई' की भूमिका में लिखा- “बहुत से महापुरुष कविता की उपयोगिता को स्वीकार तो किसी प्रकार कर लेते है पर श्रृंगार रस उनके निर्मल बेलों में कुछ खार सा या तेजाब सां खटकता है। वह श्रृंगार की रसीली लता को विषैली समञ्यकर कविता वाटिका से एकदम जड़ से उखाड़ फेकने पर तुले है । उनकी शुम सम्मति में शृंगार रस ही सबं अनर्थो की जडं है। शृंगार रसं के अश्लील काव्यों ने ही संसार मे अनाचार या दुराचार का प्रचार किया तो सदाचार का संचार सर्वत्र अनायास हों जाय, फिर संसार कं सदाचारी ओर ब्रह्मचारी बनने मे कुछ भी देर न लगे ।*९ शर्मा जी ने हिन्दी में तुलनात्मक आलोचना की पद्धति प्रचलित की ! शर्मा जी की आलोचना शैली में गम्भीरता ओर हल्केपन का विचित्र मिश्रण है | इनकी बिहारी सतसई“ के अतिरिक्त “सरस्वती' आदि पत्रिकाओं में-“संस्कृत और हिन्दी कविताओं का बिम्बे प्रतिबिम्ब भाव सतसई संहार बिहारी का विरह वर्णन मित्र भिन्न माषामो की कविता का बिस्ब प्रतिबिम्ब माव' आदि लेखों में




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