सामयिकी | Samyiki

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Samyiki by श्री शान्तिप्रिय द्विवेदी - Shri Shantipriy Dwivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ हे । गान्धीवादकी सबसे बड़ी देन उसका यह उपदेह है कि हमको साध्य- के साथ साथ साघनकी पविश्नताका भीं ध्यान रखना 'चाहिये । इसीलिए, गाम्घीजी सत्य और अहिंसापर इतना जोर देते हैं । उनका यह दावा नहीं है कि सत्य और अहिंसा उनके आविष्कार है परन्तु यद बात बिल. कुछ ठीक है कि उनके पहिछे सामूहिक व्यवह्दारमें किसीने अहिंसाकों यह स्थान नहीं दिया था । अ्टिसाके पम्भन्धमे विस्तृत विचार करनेके लिए, यह उचित स्थल नदीं है । यह विवादास्पद पर्न है कि प्रसेक अवस्थामें शारीरिक अहिंसासे काम लेना चाहिये या कभी कभी दुर्गासप्तरातीमें दिंख- लाये हुए 'चित्ते कृपा समरनिष्टरता'के उस मर्गका भी अनुसरण करना चाहिये जिसमें जगत्‌के त्राणार्थ भौतिक हिंसा की जाती है परन्तु ऐसा करते समय उस व्यक्तिके कष्याणका भी ध्यान रखा जाता है जो साका शिकार होमेवाला है । फिर भी, हमारे जीवनमें जहाँ तक अहिंसाका माव आ रके अच्छा हे ओर सव्य तथा 'चरित्रशुद्धि तो सर्यथा उपादेय है । समाजवादकों हिंसासे प्रेम नहीं हैं परन्तु जगत्‌की वर्तमान अवखामें बहू छोकड्ितके लिए शसन 'चढामेको गुरा नहीं कहता । यह ध्यानम स्खनेकी वात है कि अन्ताराष्ट्रीय व्यवहारमें सत्यपर पर्दा डालनेवाली शुप्त सन्घियोंके विरोध करनेका श्रेय सबसे पहिले समाजवादी रूपकी ही मिला | गान्धीजी भी इस वातको स्वीकार करते हैं कि कायरताका माम अदिस नहीं है, जिसमें पूर्ण आत्मबल नहीं है उसके लिए हिंसात्मक प्रतिकार भी विहित है । आभमपो पीड़ासे निषत्ति दिछानेका जब अन्य उपाय नहीं देख पड़ा तो उन्होंने अछड़ेको मारनेकी आशा दी थी । इस कार्य्यविशेषो सम्बन्ध किसीकी कुछ भी सम्पत्ति हो पर इससे यह स्पष्ट हो जाता हैं कि गान्पीजी अहिखा शब्दके अन्धगक्त नहीं द ! इसके साथी यह भी ठीक कि बहू इस बातके छिए उतावलेदैं कि वैयक्तिक और सामूहिक व्यवहार




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