श्री यशपाल जैन के गद्य साहित्य का विवेचनात्मक अध्ययन | Shri Yashpal Jain Ke Gadya Sahitya Ka Vivechnatmak Adhyayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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॥ 5 जिन्होंने श्री जैन को मानवीय मूल्यों के प्रति सदैव जागरूक बनाये रखा, स्वयं यशपाल जी का कथन हे, “आदमी के निर्माण मे वैसे बहुतों का हाथ होता है | मै भी अपने जीवन पर निगाह डालकर देखता हूँ, तो बहुतों के उपकार से अपने को दबा हुआ पाता हूँ। सबसे अधिक ऋण तो माता- पित) का है। जिन्होंने मुझे जन्म दिया”,' माता-पिता की मृत्यु के बाद श्री यशपाल जैन की अनुभूति और भी गहरी होती चली गयी, वे सदैव अभिजात्य तथा अभावग्रस्त वर्गों के बीच की खाई दूर करने के लिए सदैव विद्रोही बनने का प्रयत्न करते रहे, जिसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए हैँ । सम्भवतः यह प्रेरणा आपको अपने परिवार के उच्च आदर्शों से ही प्राप्त हुयी है| ख : शिक्षा - ग्रामीण वातावरण में रहने के कारण यशपाल जी का बाल्यकाल देहात मे वीता, अत बाल्यकाल के प्रथम चरण की शिक्षा, ग्राम के समीप स्थित विद्यालय में ही सम्पन्न हुयी थी, श्री जैन का मन बचपन मेँ पढाई मे कम वरन्‌ खेलकूद, शरारत आदि मेँ अधिक लगा करता था, इसका अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता कि आप प्रारम्भिक चरण की शिक्षा मे कमजोर रहे, आप बाल्यावस्था मेँ शरारत मँ जितने तेज थे, उतने ही कुशाग्र पठ्ने-लिखने मँ भी थे । विद्यालय मेँ हमेशा आपकी धाक रहती थी, गणित आपका प्रिय विषय रहा है, उन दिनों उर्दू का चलन था, आपने उर्दू सीखी । एवं हिन्दी का गहन अध्ययन किया | यशपाल जी की शैक्षिक पृष्ठभूमि मूलरूप से सन्‌ 1921 से प्रारम्भ हुयी । बचपन से ही प्रतिभा | सम्पन्न होने के कारण अपने शैक्षिक गतिविधियों को सुचारु रूप से गतिमान बनाये रखा तथा साथ ही साथ पाठ्य सहगामी क्रियाओं मे भी भाग लिया, सुलेख, खेलकूद, नाटक आदि प्रतियोगिता ओर ग जिनमें प्रमुख स्थान रहा करता था, नाटकं कं प्रति आपका रुञ्चान कृष अधिक ही रहा । इस स सम्बन्ध हर ` मँ आपके उद्गार कुछ इस प्रकार है -'“हम लोगों ने बहुत से नाटक भी खेले, तख्त डालकर अक्षय . (बुआ का पुत्र) की हवेली में मंच बना लेते थे और र बिस्तर की चादरों और जनानी साई यों से पर्दा सिमा सासन २८०५४००५ चतुर्वेदी, पृष्ठ - 418




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