भाव प्रकाश | Bhavprakash
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
47.14 MB
कुल पष्ठ :
694
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कपूरादिवग: । ७६
श्री डॉ. वा. ग. देसाडे ने अन्धितृण नाम से एक वनस्पति का वर्णन किया है। उसके गुण
शास्त्रीय थन्धिपर्ण से मिलते नहीं फिर भी साइव्य होने से उसका संक्षेप में यहाँ वर्णन दिया जाता है।
सं०-ग्रन्थितुण । हि०-केखी, मचोटी । पं०-मचूटि, केखु । काश्मी ०-द्रोव । सिं०-एंद्राणी'।
इरा०-दझार, वंदुक । अ०-शाए06-छाए853 ( नॉट -यासू । ले०-2०0०1080 फ़णटधडफ्र6
( पोछिगोनम् एविक्युलेरी १ | पे. 0, श०प्०0००९०6 ( पोलिगोनेसिड हे
यह उत्तरी भारतवर्ष में होता है । इसका छोटा सा छ्लुप होता है। जड़-लम्वी, कुछ काष्रमय
एवं चिमडी होती है तथा उससे अनेक उपमूल निकले रहते हैं । शाखाएं-बहुत सी, जमीन पर
फैली हुईं एवं गोल होती हैं । इसकी टहदनियों की थथियाँ बहुत गांठदार होती हैं तथा वही से पत्र
निकलते हैं । पत्र-एकान्तर, णल्याकृति, अखण्ड; धूसर रग के एवं १ इब्न से छोटे होते हैं । पुष्प-
नेक रंग के होते हैं । बीज-त्रिकोणयुक्त, चमकीले एव काले होते हैं। सिन्थ में वीजों को बीजबंदु
कहते हैं । वला के वीरजों को भी अनेक स्थानों में वीजवद कहा जाता है 4 चिकित्सा में इसके मूल,
पत्चाग एव वीरजों का व्यवहार किया जाता. है ।
रासायनिक संगठन--इसमें पोलिगोनिकू अम्ल तथा सुगन्धित तैल पाया जाता है ।
गुण और प्रयोग--इसकी जड़ रक्तस्रमाहक, मूत्रजनन; अइमरीघ्व, आनुलोमिक; ज्वरश्न एवं
यफप्त है । बीज ख्र'सन मूत्रजनन एवं वामक होते हैं ।
(१) अदमरी या मूत्रकृच्छू में इसके पचाग के क्वाथ या मूल रस का प्रयोग अधिक मात्रा
...... में करने से वहुत लाभ होता है ।
' (२) जीर्ण .अतिसार में मूल रस या पश्चाग रस देते है ।
. (३ ) विपमज्वर् में मूल रस का उपयोग करते हैं ।
(,४ ).फुफ्फुस विकारों में विद्वोष कर श्वसनिका झोथ एवं कुकास में पश्चाग क्ाथ.पिलाते हैं ।
(५) सूखी हुईं जड को पीसकर रूगाने से वेदना कम होती है । विसपें, वस्तिपीडा एवं आंव
की पीडा में पर्त्तो का लेप किया जाता है ।
अथ स्थोणेयकम् ।
( ग्न्थिपणेस्येव भेद, देपत्सुगन्घं 'धुनेर' इति ठोके प्रसिद्ध )
तस्य नामानि गुर्णोश्चाह
स्थोणेयकं यर्दिवद शुकवहंन्च कुक्कुरम् । दीर्णरोमशुकन्चापि शुकपुष्प॑शुकच्छुदुस ॥१०९॥
स्थोणेयकं कट स्वादु तिक्क॑ खिग्धं त्रिदोषनुत् ॥ ११० ॥
मेघाशुक्रररं रुच्यं रक्ोध्न॑ उवरजन्तुजित् । दन्ति कुछाख्वृड्दा हद दोगन्ध्य तिठकालकानू ॥१११॥
पगठिवन के ही भेद में थोड़ी सुगन्ध से युक्त जो “थुनेर” नाम से लोक में प्रसिद्ध औपध है:
उसके नाम तथा शुण--स्थौणेयक, वहिंवह; झुकवहँ, कुक्कुर; शीर्णरोम, झुक; शुकपुष्प और झुक-
च्छंद ये सब सस्कृत नाम “थुनेर” के हैं। थुनेर--फंठड; तिक्तरस युक्त, स्वादिष्ट, स्निग्ध,
तीन दोपों को दूर करने वाला, मेधा तथा झुक्र को वढ़ाने वाला, रुचिकारक, रक्षो्रहनाशक एवं
._ ज्वर; कमि; कुष्ठ, रक्तविकार; ठपा; दाद, दुर्गन्व और तिलकालक नामक रोग इन सर्वो को दूर
करने वाला होता है ॥ १०९-१११ ॥ नर
४४ थु
स्थौणेयक भी एक सदिग्ध औषध है । इसे अ्थिपर्ण का भेद माना गया है लेकिन जव अन्धि-
पण ही सदिग्ध है तब इसका निर्णय कैसे किया जा सकता है । तालीसपत्र नाम से लिये जाने
बाले द्रव्यों में से एक का स्थानिक नाम थुनेर है। इसलिये कुछ ठोग इस थुनेर को स्थौणेयक
मानते हैं । थुनेर का वर्णन तालीसपत्र के साथ किया गया है । चरक में स्थौणेयक का उपयोग
अगुर्वादि तैरू में ( चि. अ. ३ ), सतसकीवन अगद में ( चि. अ. २३ ), वलातिल में (चि. भ. २८)
एवं मदनफल उत्कारिकामोदक योग में ( क. अ. १ ) किया गया है। सुधुत में एलादिगण ( सू
भ. र८ ) में इसका पाठ है ।
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