अनेकान्त | Anekant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सहावीर का धर्म-बदषेन : आज के सम्वर्भ में १३ जैन धमं का श्रन्तिम लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति है । यह मुवित कंसे पायी जा सकती है ? तत्वा्थसूत्रका र श्राचार्ये उमास्वाति के दाब्दों में, “सम्यक्दर्शन-ज्ञानचारित्राणि मोक्षमागं ' । जीवन-जगत्‌, वस्तु-व्यवित क] सही देखना, सही जानना, श्रौर तदनुसार उनके साथ सही व्यवहार करना- यही मोक्षमागं है, यानी विव के माथ व्यक्ति भ्रात्मा का सम्बन्ध जब श्रन्तिमसू्पमे मप्यक्दशंन-जान- चागित्रियमयटोजाताहै, तो झनायास ही आत्मा की मुक्ति घटित हो जाती है । चीजों श्रौर व्यक्तियों के साथ जब हमारा सम्बन्ध वस्तु लक्ष्यी और वीतरागी न होकर, श्रात्मलध््यी आर सरागी होता है, तो वह रागात्मव, तीव्रता विदव म सवत्र व्याप्त सूम भौतिक पुदगल-पर माणुम्रो को आछृप्ट करने, हमारी चेतना को उनके पाक में बाध देती है । इसी को कमें-बन्धन कहते है, यानी राग श्रौर उसकी परिणति द्व प, इन दोनों के श्रात्मा मे घटित होने पर वस्तुश्रों के साथ भ्रात्माक्रा स्वाभाविकः सम्बन्ध मग हो जाता है, श्रौर उनके बीच कर्मावरण की श्रोत खड़ी हो जाती है । जगत्‌ के साथ जब मनुष्य का मग्वन्ध विथणुद्ध वस्तु-लक्ष्यी यानी “श्राल्जेनिटव'' या वीतरागी हो जाता है, इसी वो जैन द्रप्टात्रों ने मोक्ष कहा है । प्रात्मा कै टम तरह मुक्त होने पर, उसके भीतर का जो मूलगत पूर्ण ज्ञान है, अर्थात्‌ सब का सर्वकाल मे संपूर्ण जानने की जो क्षमता या दाक्ति है, वह प्रकट हो जाती है । टमी को केवलज्ञान कहते है, अर्थात्‌ एकमेव शुद्ध, श्रषवड प्रत्यक्ष ज्ञान । केंवलज्ञान होने पर लोक के साथ मनुष्य का एक श्रमर, अबोध, अ्रविना्ी सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इस प्रकार जौन दर्शन को गहराई से समभने पर पता चलता है कि वह जगत्‌-जीवन से मनुष्य का. तोड़ने या श्रलग करने वाला धमं नहीं है बल्कि जगत्‌ के साथ जीव का सच्चा रौर स्थायी नाता स्थापित करने की निक्षा ही जौनधर्म देता है । >< >< >< महावीर के १००० वर्ष बाद जिनवाणी के ग्रन्थ-बद्ध होने पर उसमे जो जैन धर्मं का उपदेश मिलता है, उसमे श्रकटतः कठोर संयम, वैखग्य श्रौर तथ कौ प्रधानता है। पेमा स्पष्ट लगता है, कि जैनघमं जीवन का विरोधी है, झौर उसका सोक्ष जगत से पलायन है । इस श्रतिवाद को नकारा नहीजा सकता ; यह भी स्पष्ट दहै कि स्वय महावीर दीघं तपस्वी ये, श्रौर उन्होने निद।रुण तपस्या क। जीवन बिताया था । पर वे तो तीर्थकर यानी युगतीथ कं प्रव्तंक प्रौर परित्राता होकर जन्मे थे । इसी कारण चरम तपस्या के द्वारा त्रिलोक श्रौर त्रिकाल के कण-कण श्रौर जन-जत के साथ तादात्म्य स्थापित करना उनके लिए अ्रनिवाये था । वे स्वय ऐसी मृत्यूजयी तपस्या करकें, श्रौरो के लिए, भ्रषने युगतीथें के प्राणियों के लिए, मुक्ति-मार्ग को सुगम बना गये है श्रौर सबको श्रमरत्व प्राप्ति का सहज ज्ञान-मन्त्र दे गये है । लेविःन वस्तुत उत्तरकालीन जिन-शासन मे जौ ग्रति निवृत्तिवाद का बोनबाना रहा, वहु वेदिक धमंकै ग्रति प्रवृत्तिवाद श्रौर भ्रप्टाचारी कर्म-काण्डो की प्रति- क्रिया के रूप में ही घटित हुमा है । फलतः वैराग्य, तप ग्रौर जीवन-विमृग्वना प्र वहद जार दिया गया दै । नतीजा यह श्रा कि अत्पज्न साध।र्ण जैनश्रावक श्रौर श्रमण हुम तप-संयम कं बाह्यानार को ही सव बृ मान कर उमी से चिपट गये । इस प्रवृत्तिकै कारण जेन द्प्टाश्रोकी असली, मौलिक विस्व-्दप्टि लुग्त हो गयी । यह रप्टि हम भगवान्‌ कन्दकन्दाचार्य के दृथ्टि-प्रधान ग्रन्थ 'समयसार' में यथाथ रूप मे उपलब्ध होती है । यह कहना णायद श्रन्युक्ति न हागी वि, महावीर कं बाद भगवान्‌ कृन्दकन्ददेव ही जिन-शासन कै मूधन्य श्रौर मौलिक प्रवक्ता हण है । उनको वाणी म भ्रात्मानृभ्रुतिका रूपान्तरकारी रसायन प्रकट हुग्रा है । उन्होंने 'समयसार' में स्पप्ट सिखाया है कि वस्तु का श्रपना स्वभाव ही धर्म है । तुम श्रपने स्वमाव मे रहो, वस्तु को श्रपने स्वभाव में रहने दो । श्रपन स्वमाव के ठीक-टीक जानो श्रीर उसी मे सदा अवस्थित रहकर सम्यक्‌-दर्शन श्रौर सम्यक्‌-जञान पूरवेक दस जगत्‌ जीवन का उपयोग करो, यानी मोग का इनकार उनके यहा कतई नही है । मगर सम्यक्दुष्टिश्रौर सम्यक्ज्ञानी होकर भोगो । तब तुम्हारा मोग बन्धन प्रर कष्ट का कारण न होगा, जल्कि मोक्षदायक प्रौर भ्रानन्द-




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