साहित्यानुशीलन | Sahityanusheelan

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Sahityanusheelan by शिवदान सिंह चौहान - Shivdan Singh Chauhan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सादित्य की परख ६ वॉठिक था दृष्टा को सौन्दयं (व्यवस्था, नियम, उपयोगिता, सहानुभूति, प्रेरणा) का बोध होने लगता है, यह एक गुप्त रहस्य है । निस्सदेह, श्रजञेय' की स्थापना हास्यास्पद हे । इसी प्रकार ईलियट के इस उद्धरण मे--'कवि एक विशेष माध्यम को व्यक्त करता है, व्यक्तित्व को नहीं'--'माध्यम' का अर्थ 'कवि-मानस' नही लगाया जा सकता जसा कि “ग्रज्ञेय' ने किया हे, बहिक हुबेट रोड के श्रनुसार उसका आदाय दाब्द- ध्वनि सम्बन्धी स्नायुविक सुवेदनीयता से ही लिया जा सकता है, श्नन्यथा यह्‌ स्थापना निरथक हे । इन सगत-श्रसगत उक्तियो को छोडकर यदि श्रन्ञेय' के कला-मूल्य निरूपक जीवन-दर्शन की परीक्षा करें तो उसकी एकागिता श्रौर यन्त्रवत्ता श्र भी मुखर लगती हैं । वस्तुत: उनके निकट कला का सल्य उसके चमत्कार से है। चमत्कार उसका साध्य भी हूं । कला के मानव-मूल्य या उसकी सामाजिक उपयोगिता झ्रादि प्रदन केवल प्रासगिक महत्व रखते है । चमत्कार-सृजन ह जाने के पञ्चात्‌ समाज उससे जैसी प्रेरणा चाहे लेने को स्वतन्त्र है । [यदि नात्तियो को यह फॉर्मला ज्ञात होता तो कलाकारों के चमत्कार-विधान से वे भी लाभ उठाने, उनकी कलाकृतियो की होली जलाने श्रौर जीवितं कलाकारो को निर्वासित करने या प्राणदण्ड देने कौ क्या प्रावइ्यकता थी ? ] उसके पुर्वे कला या कलाकार से प्रगतिशील श्रथवा नैतिक होने तन होने का आग्रह करना भ्रथवा उनसे यह्‌ श्रपेक्षा रखना कि वे कला में वास्तविकता का गत्यात्मक प्रतिबिस्ब ग्रहुण करने की चेष्टा करे, अथवा केवल इतना सोचना भी कि कलाकार स्वभावत. ऐसा करता है, कला को झनवाछित बाध्यताओ भ्रौर पुवे- धारणश्रो मे बॉघकर उससे “एच्छिक प्रररणा' पाने का दुराप्रह करना हूं। झ्रालोचक का कत्तेव्य केवल इतना हे कि वह “पर की छाप' पढ़कर बताये कि कलाकार नामधारी जन्तु किस दिक्ञाकी श्रोर निकल गया । इस प्रकार श्रज्ञेयः के श्रनुसार श्रालोचन न वंज्ञानिक क्रिया हु, न सुजनात्मक ! श्रपनी विस्गतियो के कारण ज्ञेय श्रन्ततोगत्वा, उसी मात्र सपेक्नतामूलक सोन्दथंदुष्टि पर भ्राकर ठहर जाते हे, जिससे भ्रागे बढ़कर, चाहे मनोविरहलेषरण-शास्त्र के एकागी दृष्टिकोण से ही क्यों न हो, वे कला के मान- मूल्य निर्धारित करने का बीड़ा उठाते हू और केवल “पर को छाप पढ़कर बुभठने वाले लाल बुभवकड़' ही नहीं बने रहना चाहते । इस स्थिति मे पड़कर प्रगतिवत्द का विरोध करके (नूतन रहुभ्यवाद' की श्र श्राकृष्ट होना, कला कौ परख के लिए एक प्रबुद्ध झभिजातवग की कल्पना करना, भ्रौर यदि कलाकार साधनहीन होने के कारण उपजीवी नहीं बन सकता तो “जने के लिए' उसे पत्नर-जगत या राजनीति मे, प्रविष्ट होकर श्रापद्धमं को श्रवसर-




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