भारत-निर्माता | Bharat Nirmata
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
102
श्रेणी :
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No Information available about कृष्णावल्लभ द्विवेदी - Krishnavallabh Dwivedi
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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ही है ।” (2) “इससे ही सब कोई पेदा होते, इसमें
ही रहते, और इसी मेँ वापस लौटकर लीन दो
जाते हैं ।”)»< इस “ब्रह्म” को जानने में ही जीवन
की साथेकता है । “इसको जानने से ही सत्यु पर
विज्ञय पाई जा सकती है, इसके अतिरिक्त और
कोई चारा नहीं है।”+ किंतु यह “रह्म है क्या
वस्तु ? “यह न तो स्थूल हे न सक्षम, न लघुदहैन
दीधे, न रक्तिम देन आद्र, न काया है न अंधकार,
न वायु है न आकाश, न स्वाद है न गंध ;
नेत्र और करणै, वाणी और मन, प्राण और सुख,
भीतर आर वाहर से रहित यह वस्तु न तो किसी
का भक्तण करती और न किसी के द्वारा भक्ष्य ही
है।” # तब यह श्रदूमुत चस्तु हैः कया १ उपनिषद्
इसका उत्तर देते हैं किं वह तू दी है , भे ही (वह)
ह्य हः, यह आत्मा ही वह जह्य हेः 1 अतएव
सब बातों का सार यही है' कि इस “आत्मा को ही
पहचानो 1 .
इस पक ही विचार को उपनिषद्कारों ने विभिन्न
रीतियों से, तरह-तरह की मनोर॑जक आख्यायि-
काझों और उदाहरणों द्वारा ऐसे सरल ढंग से
समभाया है, उनकी वर्युनशैली इतनी रोचक और
भाषा इतनी आओजस्वी है' कि पाश्चात्य विद्वान भी
एक स्वर से स्वीकार करते है कि संसार की विचार-
धारा के इतिहास में बे बेजोड हैँ । जमनी का परसिद्ध
निराशावादी तत््वचितक शोपेनहार तो आज से
सखौ साल पहले उपनिषदों कै एक ओष्ट रयुवाद् ही
को देखकर इतना प्रभावित इुआ था कि उसके
मह से निम्न उद्गार निकल पड़े थे-““श्रहो उप-
निषद्, ठम ही मेरे जीवन की सात्वना हो, और
ठम दी सत्यु मँ भी मुभे सात्वना दोगे ।” उखका
कहना था कि “उपनिषद् मानव ज्ञान च्नौर बुद्धि
के सर्वात्कष्ट फल हैं, उनमें अतिमानवीय विचार
भरे पड़े हैं, जिनके जन्मदाताओओं को निरे मनुष्य
ही मानना कठिन है !” निस्संदेह उपनिषद् विश्व-
© सवं खल्विदं व्रह्म ( छादोग्य उप० ३।१४।१ )
>< तैत्तिरीय उप० (३९) ; + कठ उप० (६।९५) ;श्वेताश्व-
तर (३८); # ब्रहदारस्यके उ० (रोख) , † (तत्वमसि
( छंदोग्य उप० ६।८।७ ); हं ब्रह्मास्मिः (उृहदारण्यक
उप० १।४।१० ); यमात्मा ब्रह्मः ( मांद्क्य उप०२ );
‡ श््रात्मानं विद्धिः |
भे ह
--- अकः ववे _ = रिणः
ह दे
वाङ्मय कै अमर रख हैं। भारत की तो सारी
दानिक विचारधारा कै आदि स्त्रोत चही हैं । यदि
संहिताओं में हमें सरल-हृदय कवियों के दर्शन होते
हैं और घ्राह्मण-ग्रंथों में यज्ञीय क्रिया-कलाप में निषुण
अऋत्विजों के, तो उपनिषदों में आकर अद्धितीय
तत््वचिंतक दाशेनिकों से हमारा साक्तात्कार होता
ह | ऋग्वेदिक ऋषियों का देवी संगीत स्वच्छद
पहाड़ी भरने कै अ्रवाध कलकल निनादं जसा था ।
किन्तु उपनिषद्-काल में आकर हमारे पूर्वजों के
विशाल भाल पर चिन्ता की रेखाएं मानों पहले से
कहीं अधिक गहरी खिंच गईं । बे गहन विचार में
निमग्न हयो गए और वाहर की अपेक्षा उन्होंने अब
भीतर अधिक छान-बीन करना शुरू: किया । जिसे
उन्होने बाहर विराट् रूप में देखा था, उसी का
सूधष्म अनन्त रूप उन्हें भीतर देखने पर आत्मा में
दिखाई दिया । इस आत्मा में ही उन्हें: सारे विश्व
की कुज्ी मिल गईं और उन्होंने यह घोषित कर
दिया कि इसका ही दशन करना चाहिए, इसक्रो
ही सुनना चाहिए, इसका दही मनन करना चाहिए
और इसे ही जानना चाहिए । #
वेदिक साहित्य मे, विशेषकर ऋग्वेद मे, य
वहाँ बिखरे इए ऐसे अनेक संकेत मिलते हैं, जिनके
आधार पर दम तत्कालीन इतिहास की कुछ कड़ियाँ
जोड़कर वैदिक आर्य्य की सामाजिक शरीर सास्-
तिक दशा काकुद अनुमान लगा सक्ते ह । यह
तो निश्चित् रूप से नहीं कहा जा सकता कि प्राचीन
आय्य इस देश में कब और कहाँ से आकर वसे,
किन्तु इस वातं का स्पष्ट श्राभाख मिलता है किं
उन्होने इस भूभाग मे बसनेवाली आदिम जातियों
पर विजय प्राप्त कर अपनी सभ्यता का भंडा इस
देश में फहराया था । ऋग्वेद के तीसरे मंडल के
३३वें सूक्त में विश्वामित्रस्य र्तति बह्म द॑ भारतं
जनम्' इस पंक्ति से ज्ञात होता है कि ऋग्वैदिक
काल में ही इस देश के आय्य 'भारत जन' के नाम
से पुकारे जाने लगे थे । इन्हीं के नाम पर इस देश
का नाम आरो चलकर भारतः या “भारतवर्ष”
पड़ा । ये उन्नत ललाट, उठी इुई' नाखिका और
लंबे कद कै गौर वरौ बले लोग थे, जो अपने
विरोधी अनाय्यां को दासः या दस्युः कहा करते ।
# दे० बृहदारण्यक उप० ( २।५१५ ; ४।५।६ ) 1
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