शेर-ओ-सुखन [भाग ४ ] | Sher-O-Sukhan [ Part 4]

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Sher-O-Sukhan [ Part 4] by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है [१८८०- १९५१६ र आशिकहुसेन साहब “सीमाव' १८८० ई०मे आगरेमे जन्मे । अरवी-फारसीकी पूरणेरूपेण शिक्षा प्राप्त करनेके अतिरिक्त एफ ° ए० तक अग्रेजी भी पटी । गायरीका शौक स्वभावत था। स्कूलर्मे पठते हुए फारसीकी पाठ्य पृस्तकोके फारसी अशञरको आप उर्दूका रूप देकर अपने रिक्षकको दिखाते रहते थे । यही आपका दैनिक काये था । एक वार जव आपने वोस्ताकौ एक कानी नज्म करके शिक्षकको दिखाई तो उन्टोने उसी पृष्ठपर यह्‌ गेर लिख दिया-- जब नहीं हैं शोर कहनेका झाऊर । (फिर भला हैं शेर कहना कया ज़रूर ? लेकिन मुसकराकर यह भी फर्माया कि “कल फिर किसी फारसी नज्मका तर्जुमा उर्दूमे नज्म करके लाना ।” इसी तरह आपका धीरे- घीरे अम्यास वढता गया। पिताके निघनके कारण आपको १७ वर्पकी उम्रमे कालेज छोड़ना पडा, और आजीविकाके लिए कानपुर जाना पडा । अभीतक आप शायरीमें किसीके वाकायदा शणिप्य नही ये। अत मुगा- यरोमे गज़ल कहनेका साहस नहीं होता था। १८६८ ई०में आप मिर्जा दे




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