गर्विता | Garvita

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Garvita by रामाशीष सिंह - Ramashish Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दूसरा परिच्छेदे कक + शतै ~~~ ~~~ ~~~ 0 वद्धाको दुलारोके मनका माव सम्नमुनेपे देर न सीः] रो भी उखने अपने मनका भाव छिपाश्ठर कदा है ऋतौ रतिम जामो । दुछारी ने मुस्कुराते हुए चृद्धाकी शोर देखा। सास्कै परपर हाथ रखकर उसने कहा--सच | मेरी देह छऊूर छाप कहें । वद्धाने अपना पांव खी'चकर क्रोघसे कहा--हृट ममागधिन ! 'अभागिनकी वेटी झाप भी मरेगी योर मुस भी मार डालेगी । दुखरो €ठकर हखती हदे वर्षसि चटी गयी । वृद्धा वुरसी- चवूतरेो माथा टेककर कहने खी--द प्रभो ! इस बुढ़ोतीमें मेरे पानो यह वेडी क्यों कण दौ १ कया सुमे मरने देनेकी मो तुम्हारी इच्छा नही ' है दिन चले ज्ञाने ठंगे। कभी व्मांघ पेट, कसी भर पेट खाकर, सौर कभी एकदम निराहार रह जाना पड़ता ! कटिन परिश्रम करके भी यदि दुजासी वृद्धाको जाधा पेट खिला पादी तो अपनेको छतां सममती--भगवानको धल्यवाद्‌ देतो 1 घोर ककारे मी खासकत प्रति इस कटिन सात्मन्याग एवं श्रद्धा-भक्तिको देखकर टोछेकी च्ियां दुलरोकी भूरि-भूरि प्रशसा कतो र्थी । यदुकी दादीने कहा--यहा { सान्तात्‌ दक्ष्मीका रूप हे । किन्तु यद्द लक्ष्मीकी बात बहुर्तोको न. सुद्दायी । उनमेसे चम्पा सबसे प्रधान थी । उसने यदुकी दादीके कथनका प्रतिवाद करते हुए शेषमें कह[--मद्दा | सचमुच छ्मीका रूप है ! जिसको पति, फटी संख भी नहीं देखता, अपना दूसरा विवाह कर लिया; बद्दी चली सती-सावित्री चनने ।




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