साहित्य शास्त्रीय तत्त्वों का आधुनिक समालोचनात्मक अध्ययन | Sahitya Shastriy Tattvon Ka Aadhunik Samalochanatmak Adhyayan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
268
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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जो कारण अनवद्य ही बिना सन्देह के कार्य को पदा करता है, वहां
कारण को भी कार्य शब्द से कह देते हैं--जैसे घी खाने से प्रायु बढ़ती है न
घीहीश्रायुहैघीश्रायु का कारण है भ्रायु का्ये है तथापि “श्रायुघतमु” घी
भ्रायु है) एसे कितने दी प्रयोग वरात्ररे होते है--जैसे -
श्रायुधै तं, तदी पुण्यं, यं चौरः, सुखं प्रिया ।
द्यूतं वेरं, गुरतं, श्रेयो ब्राह्मणपूजनम् ॥
“कोव्यप्रकाशादि लक्षण ग्रस्थों सें साहित्यपद का प्रयोग
इस पर विचार होता है कि यथापि लक्षणा के द्वारा लक्ष्य काव्य नाटकादि
साहित्य पद के प्रतिपाद्य होति है, ठीक है, किन्तु काव्यभ्रको् श्रौर रसगंगाधर ””
तो काव्य नाटक कुछ भी नहीं है। तथापि रस्त गंगाधर काव्यप्रकाशादि सभी
साहित्य की परिधि मे भ्रति हैं क्योंकि ये रस श्रादि तत्वों के निरूपक हैं सा हित्य
पद का चोदहवां पथ साहचयं इस प्रसिद्धि का मुल ह 1
१४--ग्रलंकारों के विकाशक प्राचायं भामह ने “शब्दार्थो सहितौ काव्यम् ,
यह् काव्य का स्वरूप लिखा है । इस पर् प्रन होता है कि क्या लोक क्या
शास्र सभी जगह् श्रयं को समाने के लिए शब्द का प्रयोग करते हैं श्रौर शब्द
से श्रथे समभे हु। मीमांसादशंन १ श्रव्याय १ पाद के “श्रौत्यत्तिकस्तु
शब्दस्यार्थेन सम्वन्धः'' सूत्र के श्रतुसार शव्द का श्रयं के साय नियतसाह्चयं
है । व्याकरण के नियम के श्रनुसार ““शब्दार्थो'' इस पद मेँ इतरेतर योग दन
नाम वाला समास है! शब्दश्च श्रथेश्र इति शब्दाथों ऐसा उसका स्वरूप है 1
यह् दन्द समास तभी होत है, जब पदार्थों में सहभाव कहना हो । श्राचंयों का
कहना दै कि सहभावविवक्षायां वृत्तिद्वन्दक दोपयोरिति ।
उस इन्द्र समास में भी जहां सहभावरुप साहित्य प्रधान होता है, वह
समाहार दन्द फटाता है \ समाहार द्द काश्रयं है कर्द वस्तुप्रोंका एकत्र
होना । जब समास के कारण भिन्न-भिन्न वस्तु एक हो जाती है, तब उसमें
“धवखदिरम्'' एक वचन होता है श्रौर जहां साहित्य के श्राप्रयीशूत पदार्थों में
प्रधानता होती है, वहाँ एकट्सरे का परस्पर में योग होता है प्रतः द्वित्वे
वर्गरद संख्या उन पदां्धों के श्रनुसोर होती है, जैसे घवखदिरी । यहां “घवस-
दिरो” इव यावय से घव के सहित संदिर तथा खरदिर के सहित घंव यहे प्रतीति
होती है । इस प्रंतोप्ति के श्रंनुंसार साहित्य होने पर भी दोनो भ्रति होने
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