ग्रामीण पुस्तकालय विकास और शिक्षा - प्रसार | Gramin Pustakalya Vikash Aur Shiksha Prasar
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
262
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about गोपीनाथ कालभोर - Gopinath Kalabhor
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्र
“समा महिपाठ (980-1026 ई ) के शासनकान वे पाँचवें वष में यड़ीं
“्रप्टाधिवा प्रचापरिमिति ' वो प्रतिलिपि तैयार वी गई। यह परति श्रव भी वैम्प्रीज
विश्वविद्यालय वें पुस्मातयम सुरभित है 1 दमम ए वप कद महीपान कही
शामन कात्त म इसी पुस्तक वी एवं प्रति और तयार की गई । यठ प्रति बंगाल वी
एशियाटिक सासायटी के पुस्तवालय में सुरित है 1८
नालदा बिहार की श्रवनति शासक -यायपाल के बाद हुई । नालन्दा के
निकट विक्रम शिला नामव एव दुसरे महाविहार पी उनति इसकी श्रवतिमे
फिशेष सहायव हुई। 1205 ई मे वग्तियार सिलजी के क्रमण न इत
पुम्तवालयकौ युरी दशा कर दी थी । शेप ग्र था को जलावर उसके सैनिक पानी
गरम करते रह शरीर नहात रहे 17”
नालदा के ध्वन्मायशेपो में 1864 में केप्टन माशल वो बालादित्य वा
जो शिलनिस प्राल हुमा था उससे सिद्ध होता है कि नाल-ला विहार भीपण
श्रग्निकाण्डवे कारण जलवर भस्म हो गया उसके साथ ही उसका विशालकाय
प्रसिद्ध पुस्तकालय भी भस्म हो गया । वहा जाता है वि पुस्तकातय मे इतन अधिव
प्रथथ कवि पुस्तकालय बरावर एकर सास तक सुलगता रहा था ।”8 उपरोक्त दोनो
प्रकार व॑ ऐतिहासिय तथ्यों को पढने से माजूम पड़ता हू कि झ्रल्फ़ेड हैसत की
पुस्तक “'पुस्तकानया का इतिहास ' मे मदनसिंह ने लिखा है कि वश्तियार खिलजी
के ग्रानमण स पुस्तकालय नप्ट हुमा जबकि श्यामनारायण कपूर ने श्रपते लेख
“प्राचीन भारत वे पुस्तकालय म स्पष्ट विया है कि पुस्तकालय भीपणा श्रग्निकाण्ड
से नप्ट हुम्रा।
एक श्रय पुस्तकालय इतिहास लेष्वकं द्वारका प्रसाद शास्मी ने श्रपनों पुस्तक
“भारत में पुस्तकालया का उदभव श्रौर विकास” से लिखा है “बौद्ध मिक्षुझ्ना श्रौर
जैन साधुग्रा मे कु कारणो से कगड़ा हा । कहा जाता है कि कुख वौद्ध भिक्षुओओो
ने जन साधुश्री के ऊपर अथुद्ध जल फेक दिया था श्रत रुप्ट होकर जनसायुञ्रान
कु दहक्ते कोयले इस पुस्तकालय पर फेंक दिये फ्लत “रत्नादधि” मे सग्रहित
प्रथ लकरः रावो गये। दसप्रवार नालदाकै इस पुस्तकालय का प्रस्तित्त
सदा के लिए जाता रदा 1 ५
मह् बाते कहा सक सत्य है इसके प्रमाण हेतु हम उस बाल के इतिहास
वी उठाकर दखना होगा । क्तु यदि हम एक दूसर पनु से साच कि जहा शिक्षा
एत नान को पाने कौ गरिमा इतनी नान्न थौ कि वहा दा प्रत्येव माचाय, शिक्षार्थी
भावनिष्ठ होकर विद्यालय की शोभा एव श्री को बात थे, शान्तिप्रिय थे, व ही
लोग अपने श्रम से तैयार साहित्य श्री को कसे सप्ठ कर सकते थ ! यह् वात युक्ति
भगत नहां लगती । हाँ यह माना जा सकता है कि झाक्मशकारिया के डर से
उदहान यह साचा हो कि ये ग्रथ उनके हाथ ते लगन पाये, श्रत उ-हीने भ्रापसम
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