महायज्ञ | Mahayagya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| 5. ‰ ~ यथं -नो मनुष्य स्यु के मार्ग (दुराचार मनः की रपिता) का परित्याग करते हुए सेरी ओर (मेरे मार्ग) पर आते हैं वे बढ़ी लम्बी और बहुत अच्छीआयु के धारण करनेत्राले होते है । हे मनुष्यों ! प्रजा से और धन से ब्ृद्धि कोग्राप्त होते हुए (बढ़ते हुए) तुम सच शुद्धा चरण बाले यर पक्ति सन वाले हण यज्ञकमं (शरण्ट तम कम) के अधिकारी होवो (वनो) ॥ €-आरोहत आयु! जरसं घ्रणानाः, अनपूवै यतमानाः यतिष्ठ इह तष्टा सुजनिमा सजोषाः, दील युः, करनि च; (ऋ १०।१८६)




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