उत्तराध्ययन सूत्र भाग - 2 | Uttaradhyayan Sutra Bhag - 2
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
434
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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जीव-दया की प्रेरणा लिए होता है । मुगयाप्रेमी संजति राजा को गदंभालि-
मुनि अभयदान का हृदयग्राही सन्देश देते हैं--
'अमयदाया सवाहि य !'
हिसा के कटु परिणामों कौ सुनकर संजति राजा करुणाद्र हो उठते
हैं, और सम्पूर्ण राज्य त्यागकर मुनि के चरणों में प्रब्रजित हो जाते हैं ।
संजय राजर्पि की भेंट एक क्षत्रिय राजपि से होती है, और फिर जिन
प्रचचन की विशिष्टता की चर्चा में क्षत्रिय रार्जाप इतिहास की वे अमर
गौरव गाथाएँ सुनाते हैं जिनमें त्याग-वैराग्य का दिव्य सन्देश गूँज रहा है।
भरत चक़्वर्ती आदि अनेक चक़्वर्ती सम्राटों ने अपार राज्य वैभव का
त्याग कर किस प्रकार कठोर तपश्चरण किया, इसका मनोहारी वर्णन इस
भध्ययन में हुआ है । चार प्रत्येक बुद्ध तथा दशार्णभद्र एवं उद्रायण आदि
राजपियों के तप-त्याग-क्षमा-समत्व की घटनाएँ पढ़-सुनकर आज भी हृदय
में अपूर्वे प्रेरणा जंगती है । इस अध्ययन में कुल मिलाकर इतिहास के १९
महापुरुपों की पावन-जीवन कथा है,जो रोचक व प्रेरक होने के साथ ही
जिन प्रवचन की महिमा का गान करती है ।
१६. मूगापुत्रीय अध्ययन : आत्मानुभूति का प्रवक्ता
उत्तराध्ययन के कुछ अध्ययनों का नामकरण वणष्यं विपय की प्रघा-
नता के आधार पर हुआ है. तो अनेक अध्ययनों का पात्रों की प्रधा-
नता पर् 1 संजयीय अध्ययन की तरह उन्नीसवां अध्ययन भी मृगापुच्र' का
वर्णन होने से 'मुगापुत्रीय' नाम से प्रसिद्ध हुआ है ।
राजकुमार मुगापुत्र एक तपस्वी श्रमण को देखर चिन्तनलीन होते
ह्, तो सहज ही पूर्वजन्म की स्मृतियाँ उभर जाती हैं । चित्र पट की तरह
पुर्वेजन्म का घटनाक़म स्मृतियों में मूत्तिमन्त हो जाता है । स्वर्ग के दिव्य
सुखों का स्मरण भी होता है तो नरक में भोगी भयंकर लोमहर्पक यातनाएं
भी स्मुति में साकार होकर सिहरन पैदा कर जाती है ।
तिर्यच एवं मनुष्य योनि में भुनत वेदना एवं शारीरिक दुःख-सुख भी
स्मृतिगोनर होते हैं और अन्त में स्मृतिगोचर होती है मनुप्यमव में का टु-
श्रमणत्व-साधना । कठोर तपण्चरणमगुक्त मुनि जीवन । इस जाति-र्मृत्ति से
मृगापुत्र को भोगों के प्रति विरक्ति हो जाती है और वह संयम ग्रहण करने
१. वोद साहित्य के साथ तुलना के लिए देखे-घो देवेन्द्र मुनि मो प्रह्तावना, पृष्ठ
६२-६३ । दिव्पावदान--सम्पादनः उर पोर एुनर पद्य ।
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