वीर प्रभु के नाम खुली चिट्ठी | Vir Parbhu Ke Naam Khuli Chitthi

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Vir Parbhu Ke Naam Khuli Chitthi  by लोकमणि जैन - Lokamani Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ त्याग धर्म को तुम त्याग चुके हो, तुम्हारा त्याग विलक्षण है। तुम हरी त्यागकर सूखी खाते ! ण्क की टसा बचाने के घदतें अनेकों का नाश कर डालते हो । फिर भी घमशास्तर 1 गवाही में पेश कर देते हा। तुमस ठ छाइ़न को कहा जाता है, तुम सत्य छाड़ बेठते हा, सारे त्याग तुम्हारे इसी तरह के हैं । तुम्हें ससार के प्राणिमात्र से प्रेम करने को कहा जाता है, ता तुम ससार को शत्रु बना डालते ही ! तुम्हें संख्या बढ़ाने का, सहघर्मी अधिक घनाने के लिये सकेत किया जाता है, तो तम अपने दो भाइयों का कान पकड़ पकड़ कर धम का सहारा छुड़वाते जा रहे दो ! तुम श्रपने हाथा पने सहधमिया कौ सख्या घटाते जा रहे हा । तुमने सामाजिक नियम एसे भद्दे आर खराब बना रक्‍्खे हे, जिनस तुम्हारी शारीरिक और मार्नासक शक्तियों का नाश हता जा रहा ६। तुम्हारे मन पवित्र नहीं ई, तुम्हारे शरीर कमज।र इ, तुम्हारी आत्मा विश्वासहीन हो गई है, विश्वासहीन व्यक्ति ससारम सुखी नदी रह सक्ता, कम से कम तम्हे अपने ऊपर भा विश्वास हाना त। आज तुम राक्तिशाली च्रार अच्छं धार्मिक नजर श्राति । तुमने गुघ्स्थाश्रम में भ्वेश किया, चाहिए था कि तम उसे थाड़ासा भागकर चराग सीखा, रागिया को विराग सिखाने के लिये पत्ना, पुत्र. घन, घान्याद चाज़ा का ससग था; न कि उसस मस्त रहकर समस्त पापों का सिर चढ़ाना आर शरोर तथा सदूभावो का एक्द्म नाश कर डालना तुम गृरस्थाश्रममें




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