विचित्र वधू रहस्य | Vichitra Badhu Rahasy

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Vichitra Badhu Rahasy by रवीन्द्रनाथ ठाकुर - Ravindranath Thakur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विचित्रवधू-रहस्य । प सुरमा बोल उटी--“ यह वात में कई बार सुन चुकी हूँ ।” उद्यादित्य-- पक बार श्र सुने, कोई कोई बात जी में पेसी भरी हुई है जा कभी कभी चित्त में बड़ी कड़ी चोट पहईुँ- चाती है। यदि उन बातां को निकाल बाहर न करूँ ते उस चार से कलेजा फर जाय । यह बात तुमसे कहने मं श्रव भी लज्ञा श्रौर कष्ट होता है, इस कारण तुम्हं बार बार कहता हूँ । जिस दिन ला न होगी, कष्ट न होगा, उस दिन समझूँ गा मेरे पाप का प्रायश्चित्त हो गया । उस दिन कुछ न कहूँगा । ”” सुरमा--“प्राणनाथ ! प्रायथ्चित्त केसा ?” यदि श्रापने पाप किया तो वह पाप का दाप है, श्रापका नहीं । मैं क्या श्राप के हृदय को नहीं जानती । श्रन्तयांमी भगवान क्या श्रापके पवित्र हृदय का भाव नहीं समभते हैं ? उद्धयादिव्य कहने लगे --““ सुक्िपिणी मुभसे तीन वषर बडी थी । वह विघवा थी श्रौर झकेली थी । दादाजी की दया से वह रायगढ़ में सुख से समय बिता रही थी । याद नहों है, पहले पहल किस चतुराइ से फँसा कर वह मुझे ले गद । उस समय मेरे मन में मध्याह्न काल की लू चल रही थी, इतना प्रस्वर तेज़ कि भला बुरा कुछ भी नहीं दिखाई देता था। माना उस समय मेरे लिए चारों श्रोर यह संसार तेजामय भाप से ढका था । सारे शरीर का खून दिमाग पर चढ़ श्राया था । भला बुरा कुछ नहीं जान पड़ता था । रास्ता, बेरास्ता, ऊच, नीच, पूरब श्रौर पच्छिम सब मेसी श्रखोां के सामने पक श्राकार धारण क्रिये थे । इसके पहले मेरे मन की पेसी शरवस्या कभी नहुर्थी श्रौरन उसके बाद ही फिर कभी बैसी हुई । न मालूस, भगवान्‌ ने किख मतलब से इस दुबल बुद्धि-हीन हव्य




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