रूप औ अरूप | Rup Au Arup

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Rup Au Arup by जानकीवल्लभ शास्त्री -Jankivallbh shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भ्छ छायावाद इससे कहीं अधिक व्यावहारिक ओर प्रयक्ष वस्तुगत काव्यघारा है । भें कद चुका हूं कि यह व्यष्टि बुद्धि को स्वीकार करती है भौर भौतिक कारणों से उत्पन्न नवीन परिस्थिति के अनुरूप बनी हु है। यह भौतिक द्रव्य ओर मानव वुद्धि के आधात-परतिघातां से मुंह नहीं मोडना चाहती । छयावाद का आरभ प्रकृति की अनिर्वच- नीय सुषमा की अभिनव आराधना से ही हुआ था, जो पूर्वकालीन भक्तिकाव्य में देख ही नहीं पडती | तुम कनक किरण के अंतराल में लक छिप कर चलते हो क्यों नतमस्तक ग्वै वहन करते, जीवन के घन रसक्रन ठरते, हे लाज भरे सौन्दयं बता दो मीन वने रहते हो क्यों? यह रददस्यात्मक प्राकृतिक सौन्दय की अनुभूति साकार पुरुषाराधना से भिन्न तो है ही निगुण निराकार करी आध्यात्मिक परंपरा से भी प्रथक्‌ है। यह प्रत्यक्ष की इन्दरियगम्य सौन्दर्यानुभूति है, इसमें प्रथम बार नवीन दशेन की झलक आई । इसकी नवीन मुद्राएँ, नव्य सौन्दय- प्रतीक नई दृष्टि का आगम इंगित करते हैं । क्रमशः छायावाद-काव्य की बौद्धिक परिपाटी और




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