ज्यों की त्यों धरि दीन्ही चदरिया | Jyon Ki Tyon Dhari Dinhi Chadariya
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
138
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
ओशो (मूल नाम रजनीश) (जन्मतः चंद्र मोहन जैन, ११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०), जिन्हें क्रमशः भगवान श्री रजनीश, ओशो रजनीश, या केवल रजनीश के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय विचारक, धर्मगुरु और रजनीश आंदोलन के प्रणेता-नेता थे। अपने संपूर्ण जीवनकाल में आचार्य रजनीश को एक विवादास्पद रहस्यदर्शी, गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में देखा गया। वे धार्मिक रूढ़िवादिता के बहुत कठोर आलोचक थे, जिसकी वजह से वह बहुत ही जल्दी विवादित हो गए और ताउम्र विवादित ही रहे। १९६० के दशक में उन्होंने पूरे भारत में एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में यात्रा की और वे समाजवाद, महात्मा गाँधी, और हिंदू धार्मिक रूढ़िवाद के प्रखर आलो
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१६ ज्योकीत्यो घरि दीन्हीं चदरिया
जैविक इकाई है, दूसरी जैविक इकाइयों के खिलाफ । समाज, दूसरे समाजों के
खिलाफ सामाजिक इकाई है । राज्य, दूसरे राज्यों के खिलाफ राजनैतिक इकाई
है। यह सब इकाइयाँ हिसा की है । मनुप्य उस दिन अहिसक होगा जिस दिन
मनृप्य निपट व्यक्ति होने को राजी हो ।
इसलिए महावीर को जैन नहीं कहा जा सकता और जो कहते हों वह
महावीर के साथ अन्याय करते हूं । महावीर किसी समाज के टिस्से नही हो सकते ।
कृप्ण को हिन्दू नहीं कहा जा सकता और जीसस को ईसाई कहना निपट पागलपन
है। यह व्यक्ति है, इनकी इकाई यह खुद हैं । यह किसी टूसरी इकाई के साथ
जुड़ने को राजी नही हैँ ।
संन्यास समस्त इकाइयों के साथ जुड़ने से इनकार है। असल में सन्यास इस
वात की खबर है कि समाज हिसा है और समाज के साथ खड़े होने में हिसक होना
ही पड़ेगा । अपनों का चेहरा भी हिसा का सुक्ष्मतम रूप है, इसलिए जिसे हम प्रेम
कहते हैं वह भी अहिसा नहीं वन पाता ।
अपना जिसे कहते हू वह भी 'मैं' नही हूँ। वह भी दूसरा है । अहिसा उस
क्षण शुरू होगी जिस दिन दूसरा नहीं है । “दी अदर इज नॉट' । यह नहीं कि वह
अपना है। वह है ही नहीं । लेकिन यह कया वात दहै कि दूसरा, दसरा दिखाई
पड़ता हैं। होगा ही दूसरा, तमी दिखाई पड़ता है । नही, लेकिन जैंसा दिखाई
पड़ता है बैसा हो ही, ऐसा जरूरी नही है। अँघेरे में रस्सी भी सॉप दिखाई पड़ती
है। रोशनी होने से पता चलता है कि ऐसा नंही है। खाली आँखों से देखने पर
पत्थर ठोस दिखाई पड़ता है। विज्ञान की गहरी आँखों से देखने पर ठोसपन विदा
हो जाता है। पत्थर सब्स्टेन्शिअल नहौ रह जाता। असल मे पत्थर पत्थर ही नही
रहं जाता । पत्थर मटीरियल ही नही रह् जाता । पत्थर पदार्थं ही नही रह जाता,
सिफं एनर्जी रह जाता। नही, जैसा दिखाई पड़ता है वैसा ही नही है । जैसा दिखाई
पड़ता है वह हमारे देखने की क्षमता की सिर्फ सूचना है। सिर्फ दूसरा है, इसलिए
दिखाई पड़ता है । नही, दूसरे को दिखाई पड़ने का कारण दूसरे का होना नही
हैं । दूसरे का दिखाई पड़ने का कारण वहुत अद्भुत है । उसे उमझ लेना जरूरी है।
उसे विना समझे हम हिसा की गहराई को न समझ सकेगे ।
दूसरा इसछिए दिखाई पड़ता है कि मै अभी नहीं हूँ । यह शायद ख्याल में
नहीं आयेगा एकदम से । मैं नही हूँ, मुझे मेरा कोई पता नही है, इस मेरे न होने
को, इस मेरे पता न होने को, इस मेरे आत्म अज्ञान को मैने दूसरे का ज्ञान वना
चिया। हम दूसरे को देख रहे है, क्योकि हम अपने को देखना नहीं जानते। और देखना
तो पड़ेगा ही। देखने की दो संभावनाएँ हैं था तो वह् अदर डायरेक्टेड हो
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