जैन दर्शन में तत्त्व मीमांसा | Jain Darshan Main Tattva Mimansa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जैन दर्दान मेँ तत्व मीमांसा [ऽ जानने कै लिए त्रागम--ये दोनों मिल हमारी सत्यौन्भुख दष्ट को पूणं वनाति ६००] यौ हमें त्रतीन्द्रिय को अहेतुगम्य पदार्थ के अर्थ में लेना होगा अन्यथा विषय की संगति नहीं होती क्योंकि युक्ति के द्वारा मी वहुव सारे च्रतीन्दिय पदां जाने जाते है] सिफे अदेतुगम्य पदायं ही ऐसे हैं, जहां कि युक्ति कोई काम नहीं करती । हमारी इष्टि केदो आअरज्ञों का आधार भावों की दिविधता है ! केग्रत्व की अपेक्षा पदार्थ दो भागों में विमक्त होते ई--देतुगम्य और अहेतुगम्य** | जीव का अस्तित्व देठुगम्य है । स्वसंवेदन- प्रत्यक्ष, अनुमान आदि घमाणों से उसकी सिद्धि होती है | रूप को देखकर रस का अनुमान, सघन वादलों को देखकर वर्षा का अनुमान होता है, यह देतगम्व है, प्रथ्वीकायिक जीव श्वास लेते हैं, यह श्रहेठगम्य**-( आगमगम्य ) है | अभव्य जीव मोक्ष नहीं जाते किन्तु क्यों नहीं जाते, इसका युक्ति के द्वारा कोई कारण नहो बताया जा सकता । सामान्य युक्ति मे मी कया जाता है-- स्वभावे वार्किका भग्नाः--““खमाव के सामने कोई प्रश्न नहीं होता] अमर जलती है, आकाश नहीं यहाँ तकं के लिए. स्थान नहीं है** | गम श्रौर तर्क का जो प्रथक-इथक्‌ लेत्र ववलाया है, उसको मानकर चले बिना हमें सत्य का दर्शन नहीं हो सकता | वैदिक साहित्य में भी सम्पूर्ण दृष्टि के लिए उपदेश श्रौर तकंपूणणं मनन तथा निदिध्यासन की आवश्यकता बतलाई दै** । जहाँ श्रद्धा या तर्क का अतिरंजन होता है; वहाँ रेकान्ठिकता श्रा जाती है । उससे त्रमिनिवेशः अग्रह या मिथ्यात्व पनपता- है , इसीलिए, झाचायों ने बताया है कि “जो देठुवाद के प में देठु का प्रयोग करता है, आगम के पक्त मे आगमिक है, वही स्वषिद्धन्त का जान- कार है] जो इससे विपरीत चलता है, वहे सिद्धान्त का विराधकं है 1“ अगम तर्क की कसौटी पर यदि कोई एक ही द्रष्टा षिवा एकही प्रकार के आगम होते तो स्यात्‌ आगमों को तक की कसौटी पर चढ़ने की घड़ी न आती | किन्तु अनेक मतबाद हैं, अनेक ऋषि । किसकी वात मानें किसकी नहीं, यह प्रश्न लोगों के सामने श्राया! धार्मिकं मतवा के इस पारस्परिक संघप में दर्शन का विकास हुता |




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