ज्ञानानन्द श्रानकाचार | Gyananand Shrankachar
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
306
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ज्ञानानन्द श्रावकाचार | १६
नहीं जा प्रवित्त विषे परनामाकी शुद्धता बचे अर ्ञानका कषयो-
पद्म बे सोई आचरन आचेरे | जान वैराग्य आत्माका निज लक्षन
है ताहीकी चाहै है । और अंवे मुनिरान केसे ध्यान वि
स्थिति दै । अरु केमे विहार को हैं अर कैसे राजादिक आय
बंद है सोई कहिए है | मुनि तो वन विषे वा मसान विषे वा
पवेतकी गुफा विपे वा पर्वतकी सिखिर विंपे वा पिला विषै ध्यान
दिया है | अर नगरादिफ सौ राजा विद्याधर ष देव वदवाणे सह|
जर मुन्याकी ध्यान अवस्था देपि दूर थकी नमस्कार करि उद्दा ही
खड़ा रहे है । अर केई पुरुपक़े यह अभिलापा वर्तें है । कदि
(कब; मुन्याका ध्यान प्के अर कटि मँ निकट नाई प्रभ कैं |
र् गुराका उपदेगने सुनौ भर प्रश्नका उत्तर जानों अर अतीत
अनागत पर्यायोंक जानो | इत्याटि अनेकं प्रकारका सरूप तकौ
गुरी सुसथकी जान्या नाय कै ऐसे केई पुरुष नमस्कार करि
करि उठनाई है । अर कैई ऐसा विचार है सो म्हैं मुन्याका
उपदेश सुन्या बिना घर जाई काई करा | गहै तो मुन्याका उपदेश
विना अदृप्त क्षा । अरु हाकि नानातरहका सदेह मै । अर नाना
तोका प्रश छै | सो या दयाछ॒ गुरां विना और कौन निवारन
करै | तीप हे भाई म्हैनी जेते मुन्याका ध्यान खुेते तैऊमाईक्षा।
र् पुन कै सो परम दयार क मुन अपना हेत ने छोडि अन्य
. जीवाने उपदेश दे हैं । तीप युन्याने अपना आगमन जनाव
मति, 'अपना आगमन करि कदाच ध्यान प्रौ चरर
,' तो अपना अपराध छागि तीसूं गोप्य ही रहै है। अर केई परस्पर
1. देपी भाई सुन्याकी काद द्मा दै । कष्ठ पाषाणका
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