समीक्षा के सिद्धांत | Samiksha Ke Siddhanta

Samiksha Ke Siddhanta by अज्ञात - Unknown

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अज्ञात - Unknown

Add Infomation AboutUnknown

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
१४ समीक्षा के सिद्धान्त १२. मनुष्य में जहाँ आर्म-निर्माण और आत्म-रक्षा . की भावना सहजात दे, वहाँ आत्म-समपंण अथवा तादात्म्य का भी भाव सहजात है । मनुष्य का चिचार “स्व” और “पर” के चिन्तन में मग्न कमी दोनां को भिन्न कमी अभिन्न देखता दै । वह्‌ यह्‌ चाहता हैं कि दोनों स्वरूप स्थिर रहें--क्या किसका है. इसे वह निश्चय कर सकता, तव विवेक का उद्‌भव होता दै । चिचार तुलना का चेतनरूपदै, वोधका चेतन रूप विवेक रै । विचार ओर विघेकं सं चिन्त यथवा चतन्य की वृत्ति पूणं वलवती होन लगती है । १३. वलवती चेतना सें वड़ी गति ओर चच्चलता रहती द। यह उदय होकर मानस शौर मस्तिष्कं की प्रत्येक प्रवृत्ति पर शासन जमाती दं श्यार प्रेरणा देती दै । यदी चेतना इसलिए व्यग्र रहती द कि आत्म-साक्षात्कार किया जाय । यद्द झपनी गति और व्यम्रता से उपलब्ध सामग्री से अपनी मौलिक चाह के सन्तोष के निमित्त स्वयं कितने दी रूपों का निमाण करने के लिए प्रवृत्त होती दें, यही आनन्द के लिए उत्करिठत होती हैं । चेतना का यह आत्मरूप उद्योग ही कल्पना दूं, यह कल्पना ही चेतना का यथाथ लक्षण है । इसी की जवर ऊध्वं गति होती दै तब आनन्द की अनुभूति हो याती है । यहीं इसी के द्वारा मनुप्य अपने व्यक्तित्व को खड़ा कर सकता दें यहीं यद्‌ छुं सजन कर्ते का दावा कर सकता दै । 2४. चित्त की तीसरी बृत्ति कल्पना” दी सूजन भाव का उद्रेक करके मनुष्य के अहंकार को अवस्थित करती हे इस विवेचन से कल्पना का मनोवैज्ञानिक रूप स्थिर होता है । भारतीय ऋषियों ने समस्त सृष्टि में तीन स्थितियों की परि- कल्पना की । उन्होंने उन तीनों के द्वारा दी ब्रह्म--दघष्िके विरार तथा सृ्ि के मुल का नामकरण करके सच्चिदानन्द कटा सन चिन , श्र आनन्द, मानसिक क्षेत्र में शोध से ज्ञात दोता हैं




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now