श्रीमद्भागवतमहात्म्य | Shrimadbhagavat Mahatmya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
92 MB
कुल पष्ठ :
1063
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
He was great saint.He was co-founder Of GEETAPRESS Gorakhpur. Once He got Darshan of a Himalayan saint, who directed him to re stablish vadik sahitya. From that day he worked towards stablish Geeta press.
He was real vaishnava ,Great devoty of Sri Radha Krishna.
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अ० २
माहास्म्यं ः ः
की प्रिया और परम सुन्दरी हो ॥५॥। एक बार जब तुमने
हाथ जोड़कर पूछा थां कि भे क्या करूं £ तव भगवानते
तुम्हे यही आज्ञा दी थी कि 'मेरे भक्तोका पोपण करो |!
| ६ ॥ तुमने मगवानकी वह आज्ञा स्वीकार कर छी;
इससे तुमपर श्रीहरि बहुत प्रसन्न हुए और तुम्हारी सेवा
करनेके लिये मुक्तिको तुम्हें दासीके रूपमे दे दिया और इन
ज्ञान-वेराग्यको पुत्रोके रूपमें ॥ ७ ॥ तुम अपने साक्षात्
खरूपसे वेकुण्ठ्धाममे हयी भक्तोका पोपण करती हय,
भूलोकमे तो तुमने उनकी पुष्टिके लिये केवल छायारूप
धारण कर रखा है ॥ ८ ॥|
तब तुम मुक्ति, ज्ञान और वेराग्यको साथ लिये ऐथ्वी-
तख्पर् आयीं ओर सत्यययुगसे हपरपयन्त वडे आनन्दसे
रहीं ॥ ९ ॥ कठियुगमे तुम्हारी दासी मुक्ति पाखण्डरूप
रोगसे पीडित होकर क्षीण होने ख्गी थी, इसलिये वह्
तो तुरत ही तुम्हारी आज्ञासे वेकुण्ठलोकको चली गयी
॥ १० | इस छोकमे भी तुम्हारे स्सरण करनेसे ही वह
आती है और फिर चली जाती है; किंतु इन ज्ञान-वेराग्य-
को तुमने पुत्र मानकर अपने पास ही रख छोड़ा है ॥ ११॥
फिर भी कलियुगम इनकी उपेक्षा होनेके कारण तुम्हारे
ये पुत्र उत्साहदीन ओर बद्र हो गये है; फिर भी तुम
चिन्ता न करो, मैं इनके नवजीवनका उपाय सोचता
हूँ ॥ १२ ॥ सुमुखि ! कढिके समान कोई भी युग
नहीं है, इस युगमे मै तुम्हें घर-घरमे प्रत्येक पुरुपके हृदयमें
स्थापित कर दूँगा ॥ १३ ॥ देखो, अन्य सब धर्मोको
दवाकर ओर भक्तिविषयक महोत्सबोको आगे रखकर
यदि मैंने छोकमे तुम्हारा प्रचार न किया तो मे श्रीदरिका
दास नहीं ॥ १४ ॥ इस कलियुगमें जो जीव तुमसे युक्त
होगे; वे पापी होनेपर भी बेखटके भगवान् श्रीकृष्णके
अभय धघामको प्राप्त होगे ॥ १७५ ॥ जिनके हृदयमे
निरन्तर प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करती है, वे जुदधान्तः-
करण पुरुष खप्नमे भी यमराजको नहरी देखते ॥१६॥
जिनके हदयमे मक्ति महारानीका निवास है; उन्हें प्रेत,
पिराच, राक्षस या दैव्य आदि सपर करनेमे भी समर्थ
नहीं हो सकते ॥ १७ ॥ भगवान् तप) वेदाध्ययन,
ज्ञान ओर कमं आदि किसी भी साघनसे वामे नदीं किये
जा संकते; वे केवल भक्तिसे दही वशीभूत होते है |
इसमें श्रीगोपीजन प्रमाण है ॥ १८ ॥ मलुष्योका ससन
जन्मके पुण्य-प्रतापसे भक्तिमे अनुराग होता है । कठियुगमं
केवल मक्ति, वेवक भक्ति ही सार है । भक्तिसे तो साक्षात्
श्रीकृष्णचन्द्र सामने उपस्थित हों जाते हैं ॥ १९ ॥
जो लोग भक्तिसे द्रोह करते है, वे तीनो छोकोमें दुःख-ह्दी-
दुःख पाते है । पूर्वकालमे भक्तका तिरस्कार करनेवाले
दुर्वासा ऋषिको बडा क्ट उठाना पड़ा था ॥ २० ॥
वस्, वस-- त्रत, तीथं, योग, यज्ञ ओर ज्ञानचर्चा आदि
बहुत-से साघनोकी कोई आवश्यकता नहीं है; एकमात्र
भक्ति ही मुक्ति देनेवाटी है | २१॥
खूतजी कहते हैं--इस प्रकार नारद जीके निर्णय
किये हुए अपने माहाप््यकौ सुनकर भक्तिकरे सरे अङ्घ
पृष्ट हो गये ओर वे उनसे कहने स्गीं ॥ २२॥
भक्तिने कहा--नारदजी ! आप धन्य है । आपकी
मुझमें निश्चढ प्रीति हैं | मे सदा आपके हृदयमें रहूँगी,
कभी आपको छोडकर नहीं जाऊंगी ॥ २३ ॥ सधौ ।
आप बडे कृपा है । आपने क्षणम दही मेरा सारा
दुःख दूर कर दिया । किंतु अभी मेरे पुत्रोमें चेतना
नहीं आयी है; आप इन्हे शीघ्र ही सचेन कर दीजिये,
जगा दीजिये } २४ ॥
सूतजी कहते है-भक्तिके ये वचन सुनकर नारद-
जीको बड़ी करुणा आयी और वे उन्हे हाथसे हिंठा-
डुलाकर जगाने छगे ॥ २५ ॥ फिर उनके कानके पास
मुह ख्गाकर् जोरसे कहा; *ओ ज्ञान ! जल्दी जग पड़ी;
ओ बेराग्य ! जल्दी जग पड़ो” ॥ २६ ॥ फिर उन्होने
वेदध्वनि, वेदान्तघोप ओर बार-बार गीतापाठ करके उन्हें
जगाया; इससे वे जेसे-तैसे बहुत जोर छगाकर उठे ॥२७॥।
कितु आल्घ्यके कारण वे दोनो जमाई लेते रहे,
नेत्र उघाड़कर देख भी नहीं सके ¡ उनके बार
बगुलोकी तरह सफेद हो गये थे, उनके अड्ड प्राय: सूखे
काठके समान निस्तेज और कठोर हो गये ये ॥ २८ ॥
इस प्रकार भूख-प्यासके मारे अत्यन्त दुब ह्ोनेके कारण
उन्हे फिर सोते देख नारद जीको बडी चिन्ता इई ओर
वे सोचने रो, अव सुभे क्या करना चाहिये १॥२९॥ `
इनकी यद नींद और इससे भी बढ़कर इनकी शृद्धावस्था
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