भारतीय साहित्य के निर्माता लक्ष्मीनारायण मिश्र | Bharatiy Sahity Ke Nirmata Lakshminarayan Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पर एक नयी बात हो रही थी; यूनिवर्सिटियों की अँग्रेज़ी शिक्षा-दीक्षा ने सुशासित अँग्रेज़ी शासन में नवशिक्षा से शिक्षित युवकों को यूरोपीय संस्कारों की ओर लालायित किया । बंगाल में पढ़े-लिखे सम्पन्न लोगों ने ईसाई धर्म अपनाने में गौरव समझा । अंग्रेज शासक थे, अँग्रेज़ी राजभाषा थी, जो भी आदमी शासन में बड़प्पन का पद पाता था, यूरोपीय संस्कारों को अपनाने में और उनकी तरह जीवन जीने में एक नई रोशनी का अनुभव कर रहा था, जिसमें पोगापन्धी नहीं थी । विशेष रूप से नारी-समाज की रूढ़ियों को तोड़ने तथा उनको जीवन की स्वतन्त्रता देने के लिए शिक्षित समाज आतुर हो रहा था। और इसमें दो मत नहीं हो सकते कि किसी भी समाज की संरचना में या कि निर्माण में आधे से अधिक हिस्सेदार नारी ही होती हे । स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य-समाज की स्थापना कर दी थी, जिसंमें हमारी पुरानी मान्यताओं तथा संस्कारों ने नये कलवेर में अपनी आँखें खोल ली थीं, हमे अपने वेदों के गौरव का बोध हो रहा था । स्वामी दयानन्द ने हिन्दी कौ आर्य-भाषा कहकर इसे ऊँचा गौरव प्रदान किया था तथा इस हिन्दी को समूचे राष्ट की राष्ट्रभाषा बनने का संकेत कर दिया था, अन्यथा हिन्दी अंग्रेजों की दृष्टि मेँ ग्रामीण भाषा थी। इस प्रकार अग्रे शासन की निर्भय छाया में हमारे समाज का नव जागरण एक ऐसे मोड़ पर खड़ा हो गया था, जहाँ से दो रास्ते जा रहे धे-एक था अपने जातीय बोध का परम्परा-प्राप्त इतिहास के प्रकाश से प्रदीप्त मार्ग, और दूसरा था यूरोपीय संस्कारों से अभिभूत ऐसा मार्ग, जिसमें परम्परा और जातीय बोध के कोई पड़ाव नहीं थे, हाँ नारी-स्वतन्त्रता की मीठी-पौधशालाएँ जिस मार्ग का नया आकर्षण थीं । यहीं से नयी सांस्कृतिक परम्परा के आरम्भ होने के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। नारी-पूजा और उसके ऊँचे स्वतन्त्र विचारे जागृत समाज के लक्षण हैं। पर यहाँ नारी-स्वतन्त्रता उलटकर सांस्कृतिक परतन्त्रता का पर्याय बन रही थी। साहित्य के क्षेत्र में ऐसी सांस्कृतिक परतन्त्रता से अघोषित युद्ध करने का संकल्प जिन्होंने लिया, वे हैं पं. लक्ष्मीनारायण मिश्र । बीसवीं शती के तीसरे-चौथे दशक में उन्होने इस साहित्यिक क्रान्ति का माध्यम नाटक-रचना को बनाया, वे हिन्दी नाट्य-रचना में भारतीय बोध तथा उसके नूतन नाट्यशिल्प के प्रकल्पक हैं, भारतेन्दु के बाद हिन्दी नाटक-रचना के नये युगान्तर। हिन्दी-नाटक-रचना में युगान्तर-मिश्र जी के सामाजिक नाटक हिन्दी का छायावादी काव्य अँग्रज़ों की सम्प्रभुता, सुशासन और अँग्रेजी शिक्षा-दीक्षा का प्रतिफल था। हिन्दी-साहित्य के इतिहास में छायावादी काव्य-रचना के लम्बे अध्याय लिखे गये हैं। पर इस धारा की काव्य-कृतियों में हमारी भूमि के वन, आधुनिक हिन्दी-नाटक के जनक ^ 15




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