महायान | Mahayan

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Mahayan by भदन्त शान्तिभिक्षु - Bhadant Shantibhikshu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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॥= प्रस्तावना आध्यात्मिक प्रभाव से अधर्मियों को घार्मिक बनाता है ।. यह अन्तर विशेष रूप से ध्यान अङ्क करता है. । बोधिसत्त्व का प्रणिहित के लिये जन्म लेना और ब्रह्म का अवतार लेकर इस लोक में उत्पन्न होने का ख्याल केसे उत्पन्न हुआ होगा १. ज़रा छानबीन कर प्राचीन धामिक प्रवृत्तियों को देखें तो कुछ साधारण बातों की और ध्यान गए बिना नहीं रहता देदिक युग में यज्ञो द्वारा जो देवपूजा होती थी उनमें देवताओं का स्वरूप मातवीय न था पर इन्द्र आदि. ऐतिहासिक व्यक्तियों को कहानियां इन्द्र आदि देवताओं के साथ जुड़ गई' तो उनका स्वरूप बहुत कुछ मानवीय हो गया तथा लोग यह ख्याल करने गे कि देवता शायद मनुष्यों की तरह ही कहीं रहते हैं वे मनुरष्योके पास खास खास अवसरों पर आया भो करते थे । बाद को उपततिषदों के समय में बह्म देवताओं का भी देवता बन गया) उसे भी देवताओं के बोचच एक बार आते इसने एक पीछे की कहांनी में देखा है ।. पर मनुष्यों के बीच आने की ज़रूरत उसे कदाचित्‌ तब तक नहीं पढ़ी थी, पर बाद में बह मनुष्यों के बीच में केसे उत्पन्न होने लगा १ बुद्ध का रूप इतना सरल एवं मानवोय था कि लोग उससे सम्तुष्ट न रद सके और उनके साथ लोकोत्तर बाते जोड़कर बहुत कुछ उन्हें लोकोत्तर बना डाला। तथापि उनकी लौकिकता और मानवता मिट न सकी ।. बह का रूप जटिल था, उसमें वेदिक युग के डेवताओं-जितनी भी लौकिकता त थी फलतः उसको लौकिक भौर हृदयगम्य बनाने के लिये बहुत कुछ मानवता के निकट लाना बहुत ज़रूरी था । इस तरह एक ओर बुद्ध को लोकोत्तर बनाने के प्रयतन हुए और दूसरी ओर ब्रह्म को लौकिक षननिके। ब्रह्म को देवताओं के रुप में देखना--विष्णु भादि को ब्रह्म की सगुण मृतिं मान लेना कदाचित्‌ पद्ला प्रयत था जिसपे ब्रह्म बहुत कुछ मनुष्य के लिये बोधगम्य हुआ पर इतना ही काफ़ो न था।. ब्रह्म को और भी निकट लाने की ज़रूरत थी और वह तब हुआ जब खयं विष्णुरूपी सगुण ब्रह्म अथवा साक्षात्‌ भगवान्‌ ब्रह्म कृष्ण बनकर अधमियों का नाश करके धर्म की रक्षा करने लगे । ब्रह्म ने इस तरद लौकिक होने में कई घिशेषताएं भी साथ में ली जो बुद्ध में न थीं । बुद्ध साधु थे । उनका रूप परम मानवीय होते हुए भी साधु रुप था; त्याग का रूप था, वंराग्य का रुप था। उसको पूरे तौर पर हृदयङ्गम करना और अपना लेना जनसाधारण के बूते छौ बात नथी। साधुरूप की अपेक्षा वह रुप जिसमें बालबचवों, स्त्रियों और धन दौलत को स्थान हो, अधिक हृदर्थगम हो सकता है। यह बात बौद्ध लोग अच्छी तरह से जामते थे और इसीलिये बुद् की भोधिसन्त्वावस्था की कहानियों में, जो कदाचितू आरम्भ में कोरी कहानियां थों और बाद में बुद्ध के जीवन के साथ जोड़ दी गई, इस प्रकार के मानवरूप को भी धर्म के भीतर अपनाया गया जो आज भी पत्थरों की प्रतिमाओं तथा चित्रोँ के बीच सजोव हो रहीं है) पर इनके भीतर फिर भी वेराग्य की अमिठट छाप बनी २ह्दी, त्याग और उत्सर्गं ही उनका प्राण घता रद्दा। कदाचित्‌ उस सम्रह्प्रधान युग में इतने त्याग-अपरिश्रद्द के भावों को अपना लेना सरल नथा) इन सब अभावो को सुण व्रह्म के अवतार्य ने पूरा कर दिया । जीवन का ध्येय वेराग्यप्रधानं न रदकर रागप्रधान हो गया ।. दया और अदिसा का आदर्श रहा पर उसके साथ




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