प्रीतिनिधि रचनाएँ | Pratinidhi Rachanaen
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
251
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रतिनिधि रचनाएँ . माडगूरूकर
दो
इद-गिर्द सपाट मैदान, बाजरेके लाल खेत, और बीचमे जैसे कोई
बेंकार-चीज फेक दी गयी हो इस तरह तीस-पेतीस घर--ऐसा था बन-
गरवाडी गाँव । बहुत-से घरोको दोवाले मिट्टीकी थी और छप्पर फूसके
थे । कुछ थोडे-स घर अटारीवाले भी थे । हर एक घरके सामने छोटा
या बडा सहन था । नालोके गन्दे पानीकी सिचाई पाकर बढा हुआ मीठा-
नीम और मुनगा था । घरके पिछवाडे भेड और बकरियोको बन्द करनेके
लिए बबूलके काँटे खडो करके अह्टाते बनाये गये थे। काँटोकी इस दीवालपर
गोबर-मिट्टी चढा दी गयी थी । कही दीवालसे सटा गाडीका टूटा पहिया
पडा हुआ था । सभी गाँवोमे जैसा होता वैसा ही सब यहाँ भी था । रास्ता
नामकी कोई चीज नहीं थी । घर बननेके बाद जो जगह बच रही थी
उसीका चछनेके लिए उपयोंग होता था । बहुत-से घरोमे ताले लगे थे ।
एक घरके सामने दो-तीन बच्चे खेल रहे थे । घरोकी परछाइयाँ धूलसे भरे
रास्तोपर पड रही थी । उनमे कही कुत्ते और कही काली-पीली मुियाँ
आँखे मूंदे बैठी हुई थी ।
में सीधा गाँवमें घुस पडा । मेरे दाये-बायें घर थे । उनमेसे औरतोने
झाँककर देखा । बच्चे भीतर भागे । आगे चलकर मुझे एक मैदान मिछा ।
वहाँ नीमका एक पेड था जिसे घेरकर एक चबूतरा बना हुआ था । उस
वीतल छायाकों देखते ही थके भर धूपमे तपे हुए मुर्गेकी तरह मै जाकर
उसमे बैठ गया । टोपी उतारी । पसीना पोछा । पैर पटककर धूल झट-
कारी । ऊपरकी शीतल छायासे पसीना सुखा भौर.अच्छा लगा |
भूख रगी थी, परन्तु यह नही मालूम था कि पानी कहाँ है। किसीसे पृछता
पर आस-पास कोई दिख नहीं रहा था । मनमे आया बिना पानीके ही खा
लं । छेक्रिन जितनी भूख गी थी उतनी ही प्यास भी । मुँंहकी नमी सूखकर
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