प्रीतिनिधि रचनाएँ | Pratinidhi Rachanaen

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Pratinidhi Rachanaen  by र॰ रा॰ सर्वटे - R. Ra. Sarvate

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रतिनिधि रचनाएँ . माडगूरूकर दो इद-गिर्द सपाट मैदान, बाजरेके लाल खेत, और बीचमे जैसे कोई बेंकार-चीज फेक दी गयी हो इस तरह तीस-पेतीस घर--ऐसा था बन- गरवाडी गाँव । बहुत-से घरोको दोवाले मिट्टीकी थी और छप्पर फूसके थे । कुछ थोडे-स घर अटारीवाले भी थे । हर एक घरके सामने छोटा या बडा सहन था । नालोके गन्दे पानीकी सिचाई पाकर बढा हुआ मीठा- नीम और मुनगा था । घरके पिछवाडे भेड और बकरियोको बन्द करनेके लिए बबूलके काँटे खडो करके अह्टाते बनाये गये थे। काँटोकी इस दीवालपर गोबर-मिट्टी चढा दी गयी थी । कही दीवालसे सटा गाडीका टूटा पहिया पडा हुआ था । सभी गाँवोमे जैसा होता वैसा ही सब यहाँ भी था । रास्ता नामकी कोई चीज नहीं थी । घर बननेके बाद जो जगह बच रही थी उसीका चछनेके लिए उपयोंग होता था । बहुत-से घरोमे ताले लगे थे । एक घरके सामने दो-तीन बच्चे खेल रहे थे । घरोकी परछाइयाँ धूलसे भरे रास्तोपर पड रही थी । उनमे कही कुत्ते और कही काली-पीली मुियाँ आँखे मूंदे बैठी हुई थी । में सीधा गाँवमें घुस पडा । मेरे दाये-बायें घर थे । उनमेसे औरतोने झाँककर देखा । बच्चे भीतर भागे । आगे चलकर मुझे एक मैदान मिछा । वहाँ नीमका एक पेड था जिसे घेरकर एक चबूतरा बना हुआ था । उस वीतल छायाकों देखते ही थके भर धूपमे तपे हुए मुर्गेकी तरह मै जाकर उसमे बैठ गया । टोपी उतारी । पसीना पोछा । पैर पटककर धूल झट- कारी । ऊपरकी शीतल छायासे पसीना सुखा भौर.अच्छा लगा | भूख रगी थी, परन्तु यह नही मालूम था कि पानी कहाँ है। किसीसे पृछता पर आस-पास कोई दिख नहीं रहा था । मनमे आया बिना पानीके ही खा लं । छेक्रिन जितनी भूख गी थी उतनी ही प्यास भी । मुँंहकी नमी सूखकर




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