पथ चिन्ह | Path Chinh

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Path Chinh by श्री शान्तिप्रिय द्विवेदी - Shri Shantipriy Dwivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पथचिह किन्तु जाह, क्या अब भी मै यही कह सकतः हँ ! वह वात्सद्यमयी तपरिवनी आज कहाँ है ?-- “मानस को उथल-पुथल करके गह्खमजल को उज्ज्वल करके तू किधर भयौ, ठड्डीन हुई हा, किस अनन्त में लीन इई जेसे माँ के पीछे-पीछे कोई शिशु अपने नन्हें-नन्हें पर्गों से दौड़ता हुआ चला आता हो ओर एकाएक उसे ओकर हो जाने पर शल्य में बिलख पढ़ता हो, आज उसी प्रकार मेरे शिशुप्राण क्रन्दून कर उठे हैं-- अथाह मूक कन्द्न! आज मैं जानता हूँ, सत्यु कया है। लेकिन अपनी आयु तो मैं.आाज मी नहीं जानता । हाँ; अब सी में अपनी बहिन से बारह चष छोटा हूँ, बारह वषं बाद भी मैं उससे इतना ही छोटा रहूँगा, सानों जीवन के पथ में वह सुझे आगे के पदुचिह्वों की ही वसीयत छोड़ गयी है । काशी, ्िं माच, ३९६४०




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