वसुनन्दि - श्रावकाचार | Vasunandi - Shravakachar

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Vasunandi - Shravakachar by पं. हीरालाल जैन सिद्धान्त शास्त्री - Pt. Hiralal Jain Siddhant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्रन्थकार का परिचय १७ तिरिएहिं खञ्जमाणेा दुहमणस्सेहिं हम्ममणे वि । सव्वत्थ वि संतो भयदुक्खं विसहदे भीसं ॥ ्रर्णाण्णं खञ्जंतो तिरिया पवंति दारणं दुक्खं । माया वि जत्थ भक्खदि अण्णा को तस्थ राखेदि ॥ श्रथ-संगतिकी इृष्टिसे ये दोनों गाथाएँ प्रकरणके सर्वथा श्रनुरूप है। पर जब हमं श्रन्य प्रतियोको सामने रखकर उनपर विचार करते हैं, तब उन संशोधनमे उपयुक्त पांच प्रतियॉमैंसे तीन प्रतियोंमिं नहीं पाते हैं । यहाँ तक कि बाबू सूरजमान वकील द्वारा वि० सं० ११६६ मैं मुद्रित प्रतिमे भीवे नहीं है | श्रतः बहुमतके श्रनुसार उन्हे प्रक्तित्त मानना पढ़ेगा | प्रन देखना यह है कि ये दोनो गाथार्णे कहँ की है श्रौर यहां पर वे कैसे श्राकर मूलगन्धका अंग जन गदं १ अरन्थोका च्रनुसन्धान करनेपर ये दोनो गाथा हमें खामिकार्चिकेयानुपे कामे मिलती है जह पर कि उनकी संख्या क्रमशः ४१ श्रौर ४२ है श्रौर वे उक्त प्रकरणम यथास्थान सुसम्बद्ध हैं। ज्ञात होता है कि किसी स्वाध्यायप्रेमी पाठकने अपने श्रध्ययन की प्रतिमैँ प्रकरणुके अनुरूप होनेसे उन्हे हाशियामे लिख लिया होगा श्रोर बादमे किसी लिपिकारके प्रमादसे वे मूलमन्थका श्रंग वन गई । (२) गाथा नं° २३० के पश्चात्‌ आहार-सम्बन्धी चौदह दोषोका निर्देश करनेवाली एक गाथा ध च प्रतिर्योमे पाई जाती है श्र वह मुद्रित प्रतिमे भी है । पर प प्रतिमें वह नही है श्रौर प्रकरण की स्थितिको देखते हुए; वह वहाँ नहीं होना चाहिए; । बह गाथा इस प्रकार है-- णह-जंतु-रोम-अट्ठी-कण -कुंडय-मंस-रुहिर चम्माइं । कंद-फल-मूल-बीया छिण्णमला चउहसा होति ॥ यह गाथा मूलाराघना की है, श्रौर वहां पर ४८४ नं० पर पाई जाती है। (३) सुद्रित प्रतिमें तथा झ श्र ब प्रतिमें गाथा नं० ५३७ के पश्चात्‌ निम्नलिखित दो गाथाएँ 'अधिक पाई जाती हैं :-- मोदक्खएण सम्मं केवरूणाणं हणेह॒ अणुणाणं । केवलद॑सण दंसण श्रणंतविरियं च अंतराएण ॥ सुहमं च णामकम्मं आउदणणेण हवट अवगहण ` । गोयं च श्रगुरुलहुयं अव्वावाहं च वेयणीयं च ॥ इनमें यह बताया गया है कि सिद्धोके किंस कर्मके नाशसे कौन षा गुण प्रकट होता है। इसके पूवं न° ५३७ वीं गाथाम सिद्धोके श्राठ गुणौका उल्लेख किया गया है । किसी स्वाध्यायशील व्यक्तिने इन दोनों गाथा्रोको प्रकरणके उपयोगी जानकर इन्हे भी मानमै लिखा होगा श्रौर कालान्तरमे वे मूलका च्रंग बन गईं । यही बात चौदह मलवाली गाथके लिए; समभना चाहिए; । उक्त पाच प्रक्षित गाथाझँको हटा देने पर श्रन्थकी गाथाओओका परिमाण ५३६ रह जाता है । पर इनके साथ ही समी प्रतिर्योमे प्रशस्तिकी ८ गाथाश्रोपर मी सिलसिलेवार नम्बर दिये हुए हैं श्रतः उन्हें भी _ जोड़ देनेपर ५३६ + द = ५४७ गाथाएं प्रस्तुत ग्रन्थ की सिद्ध होती ह । प्रस्तुत अन्थकी गाथा नं० ५७ केवल क्रियापदके परिवतनके साथ श्रपने श्रविकल रूपसे २०५, नम्बर पर भी पाई जाती है । यदि इसे न गिना जाय तो श्रन्थकी गाथा-संख्या श४६ ही रह जाती है । ४-यन्थकारका परिचय चाय वसुनन्दिने झपने जन्ससे किस देशकों पवित्र किया, किस जातिमें जन्म लिया, उनके माता- पिता का क्या नाम था; जिनदीक्ला कव ठी श्र कितने वर्ष जीवित रहे, इन सब बातोंके जाननेके लिए, हमारे




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