मोरी बिटिया | Mori Bitiya

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Mori Bitiya  by रजनीकांत बरदलै - Rajanikant Baradalai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सीरी बिटिया प्र फिर भी जब तक सोवनशिरी माई की शीतल बयार न हो, तब तक जीना दूभर रहता है । सोवनदिरी का शीतल जल न पियें तो इन मीरी लोगों की प्यास ही न बुफ्ते । सोवनदिरी माई की गोद में छोटी-छोटी नावों में चढ़कर मरम गरमा न लें, तो मीरी लोगों के मन पर रंग ही नहीं चढ़ता । इसीलिए मीरी जाति के श्रधिकतर लोग सोवनणिरी माई के ही तट पर बसते हैं। सोवनदिरी के दोनों किनारों पर जगह-जगह मीरी गाँव हैं। कहीं-कहीं ऐसा भी है कि इस पार मीरी गाँव है, तो उस पार जंगल है। ऐसे ही जंगलों को काटकर मीरी खेत बनाते हैं । ऐसे ही एक मीरी गाँव के पच्छिस की श्रोर श्राह धान के दो खेत थे । ये दोनों खेत सोवनशिरी नदी के किनारे पर ही थे ।. दोनों खेतों में दो मचान थे । बस, कोई दस-बारह नल* की ही दूरी पर । उस समय उन दो में से एक मचान पर श्राठ-नौ साल की एक लड़की थी । दुसरे में एक तेरह-चौदह साल का लड़का था । दोनों के हाथ में बाँस की एक-एक भाँकफरी ? थी । बीच-बीच में धान में बया, टुनकी श्रादि नन्ही चिड़ियाँ पड़-पड़ जाती थीं । वह लड़का श्रौर लड़की दोनों ही भाँफरी बजा-बजाकर चिड़ियों को हुशका रहे थे । कोई चार बजे की बेर हो चली । सूरज देवता धीरे-धीरे पच्छिम के श्रासमान में खिसकने लगे । धूप की किरणें सोविनशिरी नदी में पड़- कर भिलमिला रही थीं । वह्‌ लडका श्रौर वहु लड़की दोनों झकेले- लि का गित त १. जन-जलाई में कटने वाला श्रौर बसंत में रोया जानं वाला गदर या शराश्च या श्रसोजी' धान ।--श्रतु० नल --श्राठ हथ (बारह ष्ट) ३. मल तका ! यह्‌ एक विशेष प्रकार की कंभरी होती हैः निसे बिहु गने के साथ भो बजाते हूं ।--श्रनु०




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