दर्शन तत्त्व रत्नाकर [भाग २] | Darshan Tattva Ratnakar [Part २]

Darshan Tattva Ratnakar [भाग २] by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ जीवात्मा फे संवन्धरमे मतमेद इस मतमें किसीका वाध नही होता हैं यद ठाघर यानी युज्ञायस है । मीमांसक प्रभाकरने भो इसे ऐसा ही माना है 1 खुख-दुःख आदि चुद्धिके धर्म ह । जीवात्मा केवल क्षान स्यरूप ह अर्थात्‌ खव प्रकारके संर्गसे रदित, स्वप्रकाश, कूटस्थ सीर सैतन्यस्वरूप नाना माना जाता है किन्तु उसे सखाय वुद्धिके अधियेक रहनेके कारण वुद्धिके धर्मका अनुभव करता ई वही उसका भोक्तृत्व दै । चह भोकछत्व फाल्पनिक नही किन्तु सत्य ही है । संप्रश्ञात गौर असंप्रज्ञात समाधिके परिपाक-पयस्त प्ररुति-पुरुपके विवेक- ज्ञानसे अविवेककी निवृत्ति हो कर लो ज्रिविघ डुखका आत्य- न्तिक उच्छेद है वदी मोक्ष हे 1 आओपनिषदके यानी वेदान्तीके मतमे अपिचाके कारण जीवा त्मा कत्ता सौर भोक्ता भी माना गया है किन्तु वास्तवमें सर्व घर्म-रहित, परमानन्द ज्ञान स्परूप ही 'त्व पदार्थ यानी जीचात्मा माना गया हैं । आस्तिकोमं भी तारतम्य आस्तिको सवस निरष्ट ( अधमर ) दैशेपिक है वयोंकि उक्षे मरर्मे शद्‌ प्रमाण नदीं अङ्गोरृत स्हनेके कारण वेदका श्रामांण्य नदीं माना जाताहै। चेदकी प्रामाणिकता माननेयालों मे तारिक ( नैयायिक ) न्यून है क्योंकि 'असज्ञोहायपुरुप.* इत्यादि जीवात्माके शुद्ध स्व-




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