दर्शन तत्त्व रत्नाकर [भाग २] | Darshan Tattva Ratnakar [Part २]
श्रेणी : दार्शनिक / Philosophical
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
507
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१२ जीवात्मा फे संवन्धरमे मतमेद
इस मतमें किसीका वाध नही होता हैं यद ठाघर यानी युज्ञायस
है । मीमांसक प्रभाकरने भो इसे ऐसा ही माना है 1
खुख-दुःख आदि चुद्धिके धर्म ह । जीवात्मा केवल क्षान स्यरूप
ह अर्थात् खव प्रकारके संर्गसे रदित, स्वप्रकाश, कूटस्थ
सीर सैतन्यस्वरूप नाना माना जाता है किन्तु उसे सखाय वुद्धिके
अधियेक रहनेके कारण वुद्धिके धर्मका अनुभव करता ई वही
उसका भोक्तृत्व दै ।
चह भोकछत्व फाल्पनिक नही किन्तु सत्य ही है । संप्रश्ञात
गौर असंप्रज्ञात समाधिके परिपाक-पयस्त प्ररुति-पुरुपके विवेक-
ज्ञानसे अविवेककी निवृत्ति हो कर लो ज्रिविघ डुखका आत्य-
न्तिक उच्छेद है वदी मोक्ष हे 1
आओपनिषदके यानी वेदान्तीके मतमे अपिचाके कारण जीवा
त्मा कत्ता सौर भोक्ता भी माना गया है किन्तु वास्तवमें सर्व
घर्म-रहित, परमानन्द ज्ञान स्परूप ही 'त्व पदार्थ यानी जीचात्मा
माना गया हैं ।
आस्तिकोमं भी तारतम्य
आस्तिको सवस निरष्ट ( अधमर ) दैशेपिक है वयोंकि
उक्षे मरर्मे शद् प्रमाण नदीं अङ्गोरृत स्हनेके कारण वेदका
श्रामांण्य नदीं माना जाताहै।
चेदकी प्रामाणिकता माननेयालों मे तारिक ( नैयायिक )
न्यून है क्योंकि 'असज्ञोहायपुरुप.* इत्यादि जीवात्माके शुद्ध स्व-
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