विद्यार्थी और शिक्षक | Vidhyarthi Aur Shikshak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ | कर्पव्य नी; यरि उवे राष्ट्र प्रेस, कुट्टम्स प्रेम अथवा लोक प्रेम ओर समष्टि प्रम से वचित न रपना हमारा फर हे! इसीरिष्‌ हं विचार्धा के आनस से परिचितं टोने की जावदयकता ै। गणित फे घण्टे में चित्र खींचनेवाला विद्यार्थी मन्द्युद्धि नहीं है, घटिफ नो शिक्षक उसकी रुचि को पहचान कर उसे चित्रकला सिखाने के बजाय गणित के कटे उसके दिमाग़ पर कुरेद कर उसे खोखला घनाता दै, वह शिक्षक सच्चे शिक्षण के विपय में कुठ भी नहीं जानता 1 जो शिक्षक लघीर वन कर हुक्म. द्वारा विद्यार्थी से संयम पलवाता है, चद्द स्वयं ही संयमी नहीं है; उसका हुक्म थी इस यात की गवादी दे रहा है । जो शिक्षक विद्यार्थियों फे लिए नियमों का ताँता तैयार करता है, और उनसे नियमानुसार काम करवा कर खुश होता ऐै, उस शिक्षक को विद्यार्थी में श्रद्धा नहीं, उल्टे वह अश्रद्धा का गुलाम है, इसमें जरा भी पाक नहीं । जो शिक्षक विंयार्थी का भादर किये बिना आदर की भपेक्षा रखता है, व स्वय हो अपना घोर भपमान करता है । ए योना, चोरी करना, तुच्ठता घतलाना, द्ूँस-टेंस कर साना, भावाराग्दं होना, गुलामी करना आदि तमाम यातों के लिए यदि कोई जिम्मेदार है, तो वह इसारा समाज है, शिक्षक हँ, भर स्वयं मौ-पराप है | विधार्धी तो अधिकतर हमारे ही पापों के शिकार घन जाते हैं, छेकिन जब हम अपने पापों का प्रायश्चिस नहीं फर सकते, तय उनके लिए वियाधियों फो सजा देकर म उन पापों का यदला चुकाने फा प्रयप्त करते हैं । धालायें स्थापित करके उन्हें 'सुधारा' जाता दै, जय कि हमारे यहाँ अभी गुनाइ करके विद्यार्थी फो ग॒न्दे से मुक्त करने का भयंकर भोर हास्यास्पद्‌ प्रवय किया जाता दे । इस छोटी सी छेप-साला के विचार सादे, लेस्नि क्रान्ति कारक हैं । विखरे हुए होते हुए भी यलवान्‌ दै, मौर समक्षे मे सरक होते हुए भी भाचरण के लिए कठिन हूं । लेएों की नवीनता, विचारे की लवीनता की अपेक्षा भी विचारों फे समथन मै है, भौर, उत्तसे मी भधिक.




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