श्री जवाहर किरणावली | Shri Jawahar Kirnawali
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
242
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १३) बाईसवाँ बोल
और शुभ अनुभाग की वृद्धि करती दै, क्योकि झनुप्रेक्षा शुभ है । शभ
से शुभ की ही वृद्धि दोती दै और 'अशुभ से अशुभ की बुद्धि होती है।
अनुप्रेक्षा से और क्या लाभ होता है? इसके लिए भगवान्
कहते हैं--अनुप्रेक्षा बहुत प्रदेशों वाल्ली कर्म प्रकृति को अल्प प्रदेश
वाली बनाती है । -
तात्पयं यदद है कि अनुप्रेक्षा से ऐसा शुभ अध्यवसाय उत्पन्न
होता है कि बह कमं दी प्रकृति, स्थिति, अमुभाग और प्रदेश-इन
चारों के अशुम वंधनों को शुभ मे परिणत कर देता है।
यहाँ एक प्रश्न किया ज्ञा सकता है । वह यहकि यहाँ आयु-
कर्म को छोड़ देने का क्या कारण है? शुभ परिणाम से शुभ आयु
का वंघ होता है और मुनि जन जो अनुप्रेक्षा करते हैं वद शुभ परि-
णाम वालो हो-होती है । ऐसी दशा में यहाँ आयुष्य का निषेध किस
उद्देश्य से किया गया हैं? ं
इम प्रश्न का उत्तर यह है कि श्रनुप्रेक्षा से आयुष्य कमें का
वंध कदाचित् होता है ओर कदाचित् नही भी होता । कारण यद है
कि आयुष्य कर्म एक भव में एक बार दी बैधता है और बह भी
“ अन्तमुंहु्तकाल मे घता है । मगर अतुप्रेक्षा कहने वाला संसार में
रहता है तो भी ह् श्रशुभ कम नहीं चाँचता'है, यदि वह मोत्त जाता
हैतोश्रायुष्य कमं कार्वेधही नहीं करता । इस प्रकार `श्नुप्रन्ना
कएने बाल को फदाचित् आआयुप्य कभैर्वेधता है, कदाचित् नही ्वैधता।
इसी कारण यहाँ ्रायुष्यकमे छोड़ दिया गया है ।
अनुप्रेका से और गया लाभ दे ? इस विपय में कद्दा गया
है--अनुप्रेक्षा करने बाला असातावदनीय कर्म का बार-बार उपचय
नहीं करता 'अर्थात बार-बार उसका बंध नहीं करता । यद्य सूत्रपाठ
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