श्री जवाहर किरणावली | Shri Jawahar Kirnawali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३) बाईसवाँ बोल और शुभ अनुभाग की वृद्धि करती दै, क्योकि झनुप्रेक्षा शुभ है । शभ से शुभ की ही वृद्धि दोती दै और 'अशुभ से अशुभ की बुद्धि होती है। अनुप्रेक्षा से और क्या लाभ होता है? इसके लिए भगवान्‌ कहते हैं--अनुप्रेक्षा बहुत प्रदेशों वाल्ली कर्म प्रकृति को अल्प प्रदेश वाली बनाती है । - तात्पयं यदद है कि अनुप्रेक्षा से ऐसा शुभ अध्यवसाय उत्पन्न होता है कि बह कमं दी प्रकृति, स्थिति, अमुभाग और प्रदेश-इन चारों के अशुम वंधनों को शुभ मे परिणत कर देता है। यहाँ एक प्रश्न किया ज्ञा सकता है । वह यहकि यहाँ आयु- कर्म को छोड़ देने का क्या कारण है? शुभ परिणाम से शुभ आयु का वंघ होता है और मुनि जन जो अनुप्रेक्षा करते हैं वद शुभ परि- णाम वालो हो-होती है । ऐसी दशा में यहाँ आयुष्य का निषेध किस उद्देश्य से किया गया हैं? ं इम प्रश्न का उत्तर यह है कि श्रनुप्रेक्षा से आयुष्य कमें का वंध कदाचित्‌ होता है ओर कदाचित्‌ नही भी होता । कारण यद है कि आयुष्य कर्म एक भव में एक बार दी बैधता है और बह भी “ अन्तमुंहु्तकाल मे घता है । मगर अतुप्रेक्षा कहने वाला संसार में रहता है तो भी ह्‌ श्रशुभ कम नहीं चाँचता'है, यदि वह मोत्त जाता हैतोश्रायुष्य कमं कार्वेधही नहीं करता । इस प्रकार `श्नुप्रन्ना कएने बाल को फदाचित्‌ आआयुप्य कभैर्वेधता है, कदाचित्‌ नही ्वैधता। इसी कारण यहाँ ्रायुष्यकमे छोड़ दिया गया है । अनुप्रेका से और गया लाभ दे ? इस विपय में कद्दा गया है--अनुप्रेक्षा करने बाला असातावदनीय कर्म का बार-बार उपचय नहीं करता 'अर्थात बार-बार उसका बंध नहीं करता । यद्य सूत्रपाठ




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