1244 बन्दी की चेतना (1946) | 1244 Bandi Ki Chetana (1946)

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
1244 Bandi Ki Chetana (1946) by कमलापति त्रिपाठी शास्त्री - Kamlapati Tripathi Shastri

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about कमलापति त्रिपाठी शास्त्री - Kamlapati Tripathi Shastri

Add Infomation AboutKamlapati Tripathi Shastri

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
ष बंदीकी चेतना और न जाने किस प्रकारका भावोद्रेक कर रहो है। आजसे आठ वर्ष पर्वकी बात है। उस समय तुम केवढ ८ साठके बच्चे थे। तुम्हारी साता सदसा बीमार हृं गओर केवर ७२ घंटोमिं ही इस छशाकीणं भौतिक जगतसे बिदा दोनेके किए सन्नद्ध हो गयी ! उनकी इच्छानुसार न्ह विस्तरसे उठाकर मूमिशायी बना दिया था । वे आध घण्टे बाद्‌ ही इस नवर शरीरका परित्याग करके सदाके छिए मुक्त होना चाहती थी । मै उनके सरके पास वैठा हा था ओर निर्निमेप मावसे दीप-निवोणकी अद्भुत छीखा देख रहा था । सोच रहा था कि जीवन अपे उद्रमे मृल्युका बीज ठेकर क्यो आता है १ सृष्टि ओर प्रख्य, जीवन ओर मृब्युका नियन्ता चाहे कोई क्यों न हो पर अन्ततः इस करूर खीटाका रक्षय क्या है १ किसीका हरा-भरा उपवन उसकी दृष्टिके सग्मुख उजाड़ कर विनष्ट कर देनेमें किसी को क्या मिक्ता है ? किसीकी समस्त कोमल भावनाय, मधुर काम- नाओं तथा पवित्र साधम आग छगाकर उसके हृदयको भयावना इमान वना देनेम कौनसा रस मिक्ता है ! साथ दी अलुभव कर रहा था कि इस रहस्यका उद्घाटन हो याच दो, जो होता है वह्‌ किंसीको प्रिय हो अथवा न हो पर जिस प्रबढ ओौर' भीषण धाराम विद्व प्रवाहित हो रहा है, उसका दृश्य और मूतेरूप यही है। ऐसे विचारोंमें निमझ्न बैठा.हुआ मैने तुम्हारी माताको आँखें खोछते और अपनी ओर देखते हुए पाया । मुखपर उनके तहर था, उत्सुकता थी और थी विकछताकी आभा । .मुझे ऐसा प्रतीत




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now