धर्मचिन्तामणि | Dharmchintamani

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Dharmchintamani by पं. रघुनन्दन त्रिपाठी - Pt. Raghunandan Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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{ ७ 1 खौ रासचन्द्रे जौ मदाराज कै सैको देखिये कि जव शी सद्ाराजाधिराज दशरयजी ने यौवराज्य -देने को बुलाया तव, श्रौर जब बन मेँ जाने को कदा, तब, दीनो सुख भौर दुःख के समय, एक समान उन का मुख कमल विकसित रा । दशरथ जौ का वचन ई-- “शाद्‌ तस्याभिषेकाय विख्टस्य वनाय चं । न मया लक्षितस्तस्य खल्पोऽप्याकार--विध्रमः ॥५ षसो प्रकार मनुष्य को उचित 'है कि सदा सुख और दुःख ' के समय ससान रहे । धर्मावतार ली युचधिषिर जौ सदाराज कौ रोर देखने शे यद प्रत्यच्च विदित दोता दकि उन्दने कॉवल चै को के बल से अपने दुःखसय वनवासससय को सुख से काटा और श्रन्त भ चक्रवर्तीं राजा इये । किसौ कार्य में घबड़ाना कायर पुरुष का लचयण है। सुख दुःख तो संसार के.धर्म हैं। इस कारण सदा सै धार कर्मा मुरुबा्थ है । राजा नल को भी अनेक प्रकार कै वाट सने पड़ चे । परन्तु उन्हों ने थी केवल थेय को के बल से सब को सानन्द सह किया । पेय कौ परौक्षा आपत्काल दो में ोती है। गोसाई' तुलसी दास जौ ने भी लिखा है: पीर धर्म मित्र शरू नारी । श्ापत्काल परस्िये 'वारी ॥” इसी का एक द्र सन्तोष सी है। सन्तोषरूपी भ्रखत से




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