व्याकरणचन्द्रोदय भाग - 2 | Vyakaranchandroday Bhag - 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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् ब्यावरणचन्द्रोदये है । इसके परे रहते घातुके इक. को गुण होता है जैसा कि वि भादि धातुमो मे हुमा है भोर ्राकारान्त घातुभ्रो के श्रा को 'ई' होते पर भी । श्रु--श्रव्य 1 यहाँ श्राघंधातुक प्रत्यय यत्‌ को निमित्त मानकर गुण होकर भो (गुण) को भ्वादेश हुमा है। यह भवादेश (भौर भ्रौ कौ भावादेदा भी) वहीं होता है जहाँ “प्रो (ौर भ्रौ भी) प्रत्यय के कारण बना होरे । श्रु--यत(य)। श्रौ-य! श्रव्य। ण्यन्त “श्रावि' धातु से यत्‌ होने पर तो णिच्‌ वा लोपः होने पर श्राव्य रूप बनता है । यद्‌ प्रत्यय से तब्यत्‌, तब्य, भनीयर्‌ वा भत्यत वाध महीं होता--स्या---स्यातव्य, स्यानोय । गे (--गा), गातव्य, गानौप । पा -पातब्य, पानीय । चि--चेतब्य, चयनीय इत्यादि रूप भी निर्वाध होंगे । देसे ही भय षटतप प्रस्यरपो के साथ तव्यत्‌ भादि का समादेश होगा * । दिवाद-पद-विरोता के श्रर्थ में जद स्वेय शब्द का प्रयोग होता है तब यहाँ थत्‌ प्रधिकरण मे जानना चाहिए । तिष्ठतेऽस्मिननिति स्थेय 1 प्रकाशित स्थेयास्ययोऽच (१।३।२३) इस सूत्र मे मगवान्‌ पाणिनि सवा प्रयोग करते हूं। हन्‌“ (-वध्‌)}-वष्य (यद्‌) । पण मे ण्यत्‌ होकर धार्य । ॥ भरदुच (ष्व प्रकार उपधा वाली) पवर्गात धानु« से {यद्‌)--पप्‌-- दाप्य । लम्‌--लमभ्य 1 वश्यमाणा ऋहलोष्यंत्‌ का प्रपवाद दै । क््‌--दाक्य ! सह.-सष्य (यत्‌) । यह भौ हलोण्यंतु का प्रपवाद है । १ द्द्‌ पति (६५५६५) । २ धानोस्तन्िमित्तस्वंव (६।१।८०) 1 ३ शेरनिटि (६।४१५१) । प्रनिषादि (जिसने सादि से इट् ने हो) भाषपातुव परे रहते शिव का सोप हो जाता है । ४. वाय्मरूपो श्पियाम्‌ (३१1६४) । भसहप स्लघसभान सूप । धनुन बंप रहित होने पर जो समान सूप ने हो । ४. हनो वा यदपदच वसब्य (वाल) 1 ६. पोरदुपपाद (दे १1६८)




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