कसायपाहुड | Kasaypahud

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Kasaypahud by कैलाशचन्द्र - Kailashchandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ) उत्कृष्ट श्रनुमागकारडककी श्रन्तिम बगंशाके पतनके समय ी प्रास होती है । कारण कि जब श्रन्तिम वर्गणाका पतन होता हे तब उसका नि्ेष श्रन्तिम वर्गणाके पतनके साथ ही निमूंल होनेवाले उत्कृष्ट श्रनुभागकारडकको छोडकर ही होता हि, श्रन्यथा उसका सवथा श्रभाव नहं हो सकता । यष्ठी कारण है कि यौ पर श्रन्तिम बगंणसि हीन उत्कृष्ट श्रनुभागकारडकप्रमाण उत्कृष्ट श्तिस्थापना बतला है । उत्कुष्ट निद्षेपका विचार करने पर वह उत्कुष्ट श्रतिस्थापनासे विशेष श्वधिक ही प्राप्त होता है, क्योंकि उत्कूष्ठ श्रनुमागके बन्घ करके एक श्ावलि बाद श्रन्तिम स्पर्धककी श्न्तिम वर्गणाका श्रपकर्षणु करने पर इसका निक्षेप जघन्य श्रतिस्था पनासे नीचे जितना भी श्रनुभागप्रस्तार है उस सबमें दोता है । विचार करने पर निल्ेपरूप यह श्रनुभागप्रस्तार पूर्वोक्त उत्कुष्ट श्रतिस्थापनासे विशेष श्रांधक है । यही काररा है कि यहाँ पर उत्कृष्ट नितेपको उत्कृष्ट श्रतिस्थापनासे विशेष श्रधिक बतलाया है । यहाँ इतना विशेष समभना चाहिए. कि उत्कूष्ट श्रतिस्थापना तो ब्याघातमें ही प्राप्त होती है परन्तु उत्कृष्ट निक्षेष श्रव्याघातमें ही प्राप्त होता है । अनुभागउत्कषंण--जवन्य श्रतिस्थापना श्रौर जघन्य निद्ेषप्रमाण श्रन्तिम स्पर्धकोका उत्कर्षणु नहीं दोता । हाँ इन दोनोंके नीचे जो स्पर्धक है उसका उत्कर्षणु हो सकता है। तथा इस स्पर्थकके नीचे जघन्य स्पर्धक पर्यन्त जितने भी स्पर्धक हैं' उनका भी उत्कषण हो सकता है। मात्र सर्वत्र श्रतिस्थापना तो एक समान ष्टी रहती है, निक्ेप बढता जाता है । पष्टले श्रपकर्षणका निरूपण करते समय जघन्य श्रौर उत्कृष्ट निदधे तथा जघन्य श्रतिस्थापनाका जो प्रनाण बतलाया है वही यहाँ पर भी समभना चाहिए. । विशेष व्याख्यान न होनेके कारण यहाँ पर उसका स्पष्टीकरण नदीं किया हे । मूलप्रकृतिअनुभांगसंक्रम यह उत्कर, श्रपकर्षण श्रौर परप्रकूतिसंक्रमविषयक जो प्ररूपणा की है उसे ध्यानम रखकर वहाँ सर्वप्रथम २३ श्रनुयोगद्वारों तथा भुजगार, पदनिक्षेप श्रौर इद्धिके श्राश्रयसे मूलग्रकुति श्रनुभाग- संक्रमका विचार किया गया हैं। वे तेईस शनुयोगद्वार इस प्रकार हैं--संज्ञा, स्वसंक्रम, नोसवंसंक्रम; उस्कृष्टसंक्रम) श्रनुत्कृष्संक्रमः जघन्यसंक्रम, श्रजघन्यसंक्रमः सादिः श्रनादि, ध्रुव; श्रध्रुवः स्वामित्व, एक जीवी श्रपेक्षा काल, श्रन्तर, नानाजीवोकी श्रपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पशन, नानाजीवोकी श्रपेत्ता काल, श्रन्तर, माव श्रौर श्रर्पबहुत्व । इन २३ श्रनुयोगदारोका विषय सुगम होनेसे इनपर चूर्शिसूत्र नहीं हैं। जयधवलामें भी साद्ादि चार; स्वामित्व, एक जीवकी श्रपेक्षा काल श्रौर श्रन्तर मात्र इन श्रनुयोगद्दारोका ही स्पष्टीकरण किया गया है श्रौर शेष श्रनुयोगद्वारोका विचार श्रनुभागविभक्तिके समान रै यह बतलाकर उनका व्याख्यान नहीं किया है । इसी प्रकार भुजगार, पदनिक्षेप श्रौर शृद्धिके श्रवान्तर श्रनुयोगद्वारोका विचार करते हुए किसीका संक्षेपमें व्याख्यान कर दिया गया है श्रौर किसीका कथन शनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना मात्र करके मूल प्रकू ति श्रनुभागसंक्रमका कयन समात्त किया गया हे । उत्तरप्रकृतिअजुभागसंक्रम उच्चरग्रकृतिश्रनुभागसंक्रममे २४ श्रनुयोगद्वार है यह प्रतिज्ञा वचूणिसूत्रमे ही की गई है । मूल- प्रकृतिश्मनुभागसंक्रमके विषय परिययके प्रसंगसे जिन २३ श्रनुयोगदारोका नामनिर्देश किया है उनमें सल्लिकर्षके मिलाने पर उत्तरप्रकृतिश्रनुभागसंक्रमसम्बन्धी २४ झनुयोगद्वार हो जाते हैं । उनमें सर्वप्रथम संज्ञा श्रनुयोगद्वार है । इसका व्याख्यान करते हुए उसके घातिसंशा श्रौर स्थानसंशा इस प्रकार दो भेद किये गये हैं । मिथ्यात्व श्रादि कर्मोके उत्कृष्ट झादि श्वनुभागसंक्रमरूप स्पर्थकॉर्मे कौन सर्वघाति है श्रौर कौन देशघाति दे इसकी परीक्षाका नाम घातिसंशा है, क्योकि घातिकर्माकि श्रनुमागबन्धकी श्रपेदा




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