जैन धर्म प्रवेशिका भाग - 1 | Jain Dharma Praveshika Bhag - 1

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Jain Dharma Praveshika Bhag - 1  by बाबू सुरजभान वकील - Babu Surajabhan Vakil

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| ७ | हो जाता दै, कुछ दवा दो कर हवा में मिल जाता दं ओर कुछ भाप वन कर फिर पानी वन जाता है, इस ही प्रकार का चक्र सब ही प्रकार की चस्तुवों में लगा हुवा है कोड पर्याय जल्द बदलती हैं और कोई देर में परन्तु प्रत्येक वस्तु . अपनी पर्याय बदलती जरूर है, इस ही प्रकार जीव भी कभी मनुष्य बनता है, कभी घोड़ा बेल आदि पशु होता हें कभी चील कबूतर तोता मेना आदि पत्ती बनता है, कभी मच्छर खटमल आदि कीड़ा मकोड़ा बन जाता है कभी नरक में जाता दें ओर कभी स्वग में, इस हीं प्रकार अनाटदिकाल से तरह २ की पर्याय बदलता चला आरहा है, इस प्रकार जीव ओर अजीव दानां ही प्रकार क पदाथ अनादि काल से तरह २ का पर्याय बदलते चल आरहे हैं, इस दी को संसार कहते हैं, इस संसार को न किसी ने बनाया हैं आर न कोई नाश कर सक्ता हैं यह ता वस्तुझं के स्वभाव के अनुसार तरह २ की पर्याय बदलता हुवा अनादिकाल से यूंदी चला आरहा हैं। संसार की सब वस्तु अपना अलग २ स्वभाव रखती द परन्तु दुसरा वस्तुनां के मिलने मे उनके स्वभावे फरक आजाता है उस दी को विभाव कहते हैं, पानी का स्वभाव शीतल ३ पान्तु उम पर सूरन की घूप के पड़ने से वा आग की गर्मी के पहुंचने से वह पानी ऐसा गम हो जाता हैं कि छूआ भी नहीं जा सक्ता है, शरीर पर पड़जाय तो फफोले




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