मंजु | Manju

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Manju by श्री गोपाल आचार्य - Shri Gopal Acharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मनु ९६ विचार जान लो । गया मततब हे हो सबता हैं वह तुम्हारे साय चादी न वरे । यह में जानना हूँ बढ़ तुम्ह प्यार नहीं कर सकती । उसकी वाणी म दत्ता थी । चेहरे के भाव यथावन्‌ गभीर >! कख क्षण वे टिषएु कमरेम नन्ति दा 1 विमल मनु के चिन का दंखते ही गम्भीर हो गया था । यह तथ्य बिहारी से दिपा न था । वात की बातचीत ने सारे वातावरण का गम्भीर बना टिया 1 मजु के पिपय मे मादूम हाता है तुम बटूत जानते हू । मेरी उसमे दिलचस्पी है 1 तुम इर साथ नाती कर मङेगौ ८ यह मैं नहीं कह सकता। हम एक टूसर को प्रेम जरूर करत हैं । लुम श्रपनी माग जारो रख कर उस वटनास न बरी इसीलिय मैंने बुआ द्िगारा नहीं । तुम्हें मजु प्यार करनी है ? “नम्र ॥ सिवाय तुम्हारे ब्रौर कसा से नाता नहा करगौ ? मेरा यहां विश्वास है । मजवूरन गर उसे किसी श्रौर से शादी बरनी भी पड़ी तो भी वह उसकी नही हो सबती । एवं “न पर मैं अपनी पसंद वार्षिस जे सकता हूँ विमत 1 मैं उसे पूरा करन की काटिरा वस् गा । में सिफ पानना चाहता हूँ कि तुम्हार मुवावने मे बह मरा शा सकेगी या नहीं । इसके दिये किसी बहान से वह हम लाना व अपने यहा युराय। कायत्रमं वं वीचमे मैं वहा से वापिस घर आने का यटाना करूगा। तुम्हें भी मर साथ ही एक वार उठ लाना होगा । मुझ इजाजत दर गर झाग्रहपूवक उसने तुम्ह रोक लिया तो में समझा कि बढ़ नुम्टारी है । पिताजा को मरा झासिरी निशय देन मे अभी पाय शित बाकों




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