प्राचीन भारत की सांग्रामिकता | Pracheen Bharat Ki Sangramikata

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Pracheen Bharat Ki Sangramikata by पं० रामदीन पांडेय - Pandit Ramdeen Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुरातन भारतीय भंडा ३ (घ) अअरगिपुराण, युक्तिकल्यतरु, कालिकापुराण श्रादि अंथों में यह लिखा मिलता है कि भजदंड तालवृ्त के बनते थे । (ङ) मध्यकाल में बरछा या माला युद्ध के काम में श्राता था । यह ठीक तालध्वज की आकृति का था। इसकी मुठ तालध्वज-दण्ड का श्रनुकरण करती थी श्रौर धार केतन का । (व). इंगलैंड के प्लॉटाजिनेट राजकुल में प्लाटाजेनिस्टा पेड़ भंडे के रूप में प्रयुक्त होता था | (छ) हमारे देश मै कोविदार, नीम, बेल, पलाश, बस श्रादि वृत्तो के भी पताका-दंड बनते थे । इसकी चर्चां सप्रमाणं अन्यत्र होगी | उपयु क्त उद्धस्णो से इस बात की पुष्टि होती है कि मानव-जातिको पताका और उसके दंड का ज्ञान वर्षों से ही प्रात हुश्रा था | (२) सैन्य, शिविर, रण-यात्रा;, अभियान, रणक्षेत्रादि मे तथा राष्ट्रीय, सामाजिक तर धार्मिक उत्सवों के अवसरों पर कंडे के प्रयोग के अ्रसाणा-- (१) बेदिकसादय--(क) ऋगवेदिक काल में भंडे का प्रयोग इतना व्यापकः था कि यह रूपक और विशेषण के रूप मँ व्यक्त होन लगा था | श्रग्नि के लिए धूमकेतु-शब्द प्रचलित हो गया था--लाल सतह पर स्थित काले रंग का कंडा | “स नो महाँ अनिमानों धूमकेतुः पुरुशचन्द्रः घिये वाजाय हिन्वठु ।”--ऋ० १ । २७ । ११९ (ख) इस युग में जनध्वजा (1१७७1 1182) का प्रचलन था । '““स रेवां इब विश्पति देंव्य: केतु शुणोतु नः । उक्केरस्निवृदद्धानुः ।”--ऋगू० १२७१२ (ग) मंडे के लिए द्रप्स-शब्द मी ऋगूवेद के मंत्रों में प्रयुक्त हुआ दै । यह जद (2520) के द्रप्स का पर्यायवाची है। ““उध्व मानु सविता देवौ श्रभरदुद्रप्सं दविष्वद्‌ गविषो न स सत्वा ।”--ऋ० ४ । १३ | २ (घ) श्रडाल्फ केजी ( +001 {261 ) पने अंथ ग्वेद में इस प्रकार लिखते ह--“च्रायो की सीमाग्रौ पर जब शत्रु की सेना चढ़ श्राती थी, तब मिट्टी के दीले तेयार किये जाते थे और शहतीरो की मोरचेबंदी खड़ी की जाती थी । आय-सेना सांग्रामिक गीत गाती हुई, भंडे फहराती हुई, जुमकाऊ बाजे के साथ श्र का सामना करती थी ।” (२) महदाकाव्य-सादय--(क) वाह्मीकि-रामायण में भी संडे का वणन शहर, शिविर, सरिता, रण-यात्रा तथा रणेत्र के संबंध म मिलता है | श्रयोभ्या के महलो पर भंड लहराते रहते थे । “सूतमागघसंबन्धां .. श्रीमतीमठुलप्रमाम्‌ । उच्चादाल ध्वजाबती शतब्नीशतसंकुलाम्‌ ॥”--रामा० श्रयो० ५1 ११




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