प्राचीन भारत की सांग्रामिकता | Pracheen Bharat Ki Sangramikata
श्रेणी : राजनीति / Politics
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18 MB
कुल पष्ठ :
207
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पुरातन भारतीय भंडा ३
(घ) अअरगिपुराण, युक्तिकल्यतरु, कालिकापुराण श्रादि अंथों में यह लिखा मिलता है
कि भजदंड तालवृ्त के बनते थे ।
(ङ) मध्यकाल में बरछा या माला युद्ध के काम में श्राता था । यह ठीक तालध्वज की
आकृति का था। इसकी मुठ तालध्वज-दण्ड का श्रनुकरण करती थी श्रौर धार
केतन का ।
(व). इंगलैंड के प्लॉटाजिनेट राजकुल में प्लाटाजेनिस्टा पेड़ भंडे के रूप में प्रयुक्त
होता था |
(छ) हमारे देश मै कोविदार, नीम, बेल, पलाश, बस श्रादि वृत्तो के भी पताका-दंड
बनते थे । इसकी चर्चां सप्रमाणं अन्यत्र होगी |
उपयु क्त उद्धस्णो से इस बात की पुष्टि होती है कि मानव-जातिको पताका और
उसके दंड का ज्ञान वर्षों से ही प्रात हुश्रा था |
(२) सैन्य, शिविर, रण-यात्रा;, अभियान, रणक्षेत्रादि मे तथा राष्ट्रीय, सामाजिक
तर धार्मिक उत्सवों के अवसरों पर कंडे के प्रयोग के अ्रसाणा--
(१) बेदिकसादय--(क) ऋगवेदिक काल में भंडे का प्रयोग इतना व्यापकः था कि
यह रूपक और विशेषण के रूप मँ व्यक्त होन लगा था | श्रग्नि के लिए धूमकेतु-शब्द
प्रचलित हो गया था--लाल सतह पर स्थित काले रंग का कंडा |
“स नो महाँ अनिमानों धूमकेतुः पुरुशचन्द्रः घिये वाजाय हिन्वठु ।”--ऋ० १ । २७ । ११९
(ख) इस युग में जनध्वजा (1१७७1 1182) का प्रचलन था ।
'““स रेवां इब विश्पति देंव्य: केतु शुणोतु नः । उक्केरस्निवृदद्धानुः ।”--ऋगू० १२७१२
(ग) मंडे के लिए द्रप्स-शब्द मी ऋगूवेद के मंत्रों में प्रयुक्त हुआ दै । यह जद (2520)
के द्रप्स का पर्यायवाची है।
““उध्व मानु सविता देवौ श्रभरदुद्रप्सं
दविष्वद् गविषो न स सत्वा ।”--ऋ० ४ । १३ | २
(घ) श्रडाल्फ केजी ( +001 {261 ) पने अंथ ग्वेद में इस प्रकार लिखते
ह--“च्रायो की सीमाग्रौ पर जब शत्रु की सेना चढ़ श्राती थी, तब मिट्टी के दीले तेयार
किये जाते थे और शहतीरो की मोरचेबंदी खड़ी की जाती थी । आय-सेना सांग्रामिक गीत
गाती हुई, भंडे फहराती हुई, जुमकाऊ बाजे के साथ श्र का सामना करती थी ।”
(२) महदाकाव्य-सादय--(क) वाह्मीकि-रामायण में भी संडे का वणन शहर, शिविर,
सरिता, रण-यात्रा तथा रणेत्र के संबंध म मिलता है | श्रयोभ्या के महलो पर भंड लहराते
रहते थे ।
“सूतमागघसंबन्धां .. श्रीमतीमठुलप्रमाम् ।
उच्चादाल ध्वजाबती शतब्नीशतसंकुलाम् ॥”--रामा० श्रयो० ५1 ११
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