सम्पूर्ण गांधी वाड्मय भाग - 39 | Sampurn Gandhi Vadmay Bhag - 39

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पन्द्रह पुकारका देशने निस उत्साहसे उत्तर दिया, उसे देखकर याघीजी भी चमत्कृत हृए। उन्होने आत्मकथाम उन दिनोके उत्साहका तटस्थ भावसे वर्णन किया है। शुरू- शुरूमें आन्दोलन थोड़ा पिचडत-सा लगा, किन्तु वादमे उसमें गति आ यई और वह आन्दोलन त्रिटिस शासन-कालका पहला जन-भन्दोलन हया ओर गाधीजी पहले जन-नेता ) अत्मकथाका विवरण यहाँ आकर समाप्त हो जाता है। किन्तु यह कहानीका अन्त नहीं है। आत्मकथा भी यही समाप्त नहीं होती । याघीजीने आत्मकथाके ' बिदाई' नामक अध्यायमे अपने जीवनके अनुभवोका सिंहाबलोकन किया है और उससे ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय जिस आत्मविर्वासके साथ उन्होनें एक व्षमें स्वराज्य लानेका वचन देते हुए जैसा राष्ट्रीय आन्दोलन छेडा था, वह आत्मविश्वास उनके पास मद्दीं था। आत्मकथाके प्रारम्मिक और अन्तिमं दोनों अध्यायोम लेखकने पार्थिव विफलताका अनुभव किया है, किन्तु इस विफलताकि माध्यमसे उसने आत्मोन्नति की हैं। १९२०मे असहयोग आन्दोलन गुरू करनेके वाद वे दो तत्वोको लेकर बहुत दु खी थे) एकं ओर तो थी जनताकी वीच-वीचमे फूट पडनेवाली हिंसा और दूसरी ओर था देगके करोड़ो लोगोको असहनीय गरीवीमे रखनेवाला विदेशी शासन । माचं १९२२ में अहमदावादके स्यायालयम दिये गये अपने वयानमे उन्होने व्यायाधीकषसे कहा : “मेरा पूरा व्यान सुनकर आपको शायद इस वतका अन्दाज हौ जायेगा किं मेरे भीतर एसा क्वा-कु उमड़ रहा दहै, जिसके कारण एक अच्छा-मला आदम बडेंसे वड़ा खतरा मोल लेनेंको तैयार हो जाता है।” (खण्ड २३, पृष्ठ १२४) य्रवदाके कारावास कालमें गाघीजीकों व्यवस्थित रूपसे अध्ययन और विचार करनेका समय मिल गया। फरवरी १९२४ में वाहर निकलते-निकलते तक उन्होने रचनात्मक कार्यक्रमको साधन वनाकर काग्रेसमे पुनर्जीवनका सचार करनेका निश्चय कर छिया था। वाहर निकलकर जव खादीके प्रश्न पर वे मोतीलाल नेहरू और चित्तरजनदास जैसे प्रमावशारी नेताभोको अपने विचारसे सहमत नहीं करा पाये गौर जब मोतीछाल नेहरूको उन्होंने जरा भी झुकनेके छिए तैयार नहीं देखा, तो उन्होंने काग्रेसकी वागडोर स्वराज्य पार्टीके हाथमे दे दी और १९२५ के अन्तमे सक्रियं राजनीतिसे अलग हो गये ! उसके वाद एक व्पका समय उन्होने लगभग सावरमती माश्रममें विताया भर इस अवधिमें गीताका अव्ययन तथा भाश्रमवासियोसे विचार विमर्श करते रहे। (खण्ड ३२) इस कालम उन्होने निष्काम कमं करने भौर अपनेकौ मन्य वनानेका अर्थं अविक सुमति समन्ना । आह्मशुद्धिकी दियामे अपने आराध्यदेव, रामे उन्होने बक्ति देनेको प्रार्थना को। उन्होने नवजीवन ' के एक लेखमे लिखा है. “वह तो मेरे ही घरमे निवास करनेके लिए आ गया है। . . . वही मेरा सर्वस्व है। - . . मैं तो उसीके जिलाये जी रहा हूँ। में तो भगी और ब्राह्मणसे रामको ही' देखता हूँ और इसलिए दोनोका अभिवादन करता हूँ।” (खण्ड २४, पृष्ठ




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