व्यवहारसूत्रं | Vyavharsutram
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
268
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सम्पादकीय १७
व्यवहार पंचकं के क्रम भंगा का प्रायश्चित--
आगम व्यवहार के होते हुये यदि कोई श्र तव्यवहार का प्रयोग करता है
तो चार गुरु के प्रायप्चित्त का पात्र होता है ।
इसी, प्रकार श्रूतव्यवहार के होते हुये भाज्ञाव्यवहार का प्रयोगकर्ता,
आज्ञाव्यवहार के होते हुये धारणाव्यवहार का प्रयोगकर्ता तथा धारणा-
व्यवहार के होते हुये जीत व्यवहार का प्रयोगकर्ता चार गुरु के प्रायश्चित्त का
पात्र होता है ।
व्यवहारपंचक का प्रयोग पूर्वानुपुर्वीक्रम से मर्थात् अनुक्रम से ही हो
सकता है किन्तु पश्चानुपूर्वीक्रम से अर्थात् विपरीत क्रम से प्रयोग करना
सर्वथा निषिद्ध है]
आगमग्धवहारी भागम व्यवहार से ही व्यवहार करते हैं; अन्यश्र तादि
व्यवहारों से नहीं--क्योंकि जिस समय सुयं का प्रकाश हो उस समय दीपक के
प्रकाश की भावश्यकता नहीं रहती । |
जीतव्यवहार तीथं (जहाँ तक चतुविध संघ रहता है वहाँ तक) पर्यन्त
रहता है । अन्य व्यवहार विच्छिन्न हो जाते हैं
कुप्रावचनिक ब्यवहार-- |
अनाज में, रस में, फल में; और फूल में होने वाले जीवों की हिंसा हो
जावे तो घी चाटने से शुद्धि हो जाती है ।*
जं जस्स पच्छित्त, भापरियपरंपराए भविरुद्ध ।
जोगा य वहु विगप्पा, एसो खलु जीतकप्पो ॥
--व्यव० भाष्य पीठिका गाथा १२।
जं जीयमसोहिकरं, पासत्य-पमत्त-संजयार्ईण्णं ।
जइ वि महाजणाइन्न, न तेण जीएण ववहारो ॥
जं जीय सोहिकरं, संवेगपरायणेन दत्तेण ।
एगेण वि आङ्ण्णं, तेण उ जीएण ववहारो ॥
-- स्थव० ॐ० १० भाष्य भाया -७२० । ७२१}
१. गाहा--सुत्तमणागयविसयं, खेत्तं कालं च प्प ववहारो 1
होहिति न आइत्ला, जा तित्थं ताव जीतो उ ॥
। --व्यव० १० भाष्य गाधा ५५1
२. अन्नाद्यजानां सत्त्वानां, रसजानां च सर्वेशः 1 -
फलयुष्पोद् भवानां च, घृतप्राशो विशोधनम् ॥
-मनु° मल० १११८३ ।
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