व्यवहारसूत्रं | Vyavharsutram

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सम्पादकीय १७ व्यवहार पंचकं के क्रम भंगा का प्रायश्चित-- आगम व्यवहार के होते हुये यदि कोई श्र तव्यवहार का प्रयोग करता है तो चार गुरु के प्रायप्चित्त का पात्र होता है । इसी, प्रकार श्रूतव्यवहार के होते हुये भाज्ञाव्यवहार का प्रयोगकर्ता, आज्ञाव्यवहार के होते हुये धारणाव्यवहार का प्रयोगकर्ता तथा धारणा- व्यवहार के होते हुये जीत व्यवहार का प्रयोगकर्ता चार गुरु के प्रायश्चित्त का पात्र होता है । व्यवहारपंचक का प्रयोग पूर्वानुपुर्वीक्रम से मर्थात्‌ अनुक्रम से ही हो सकता है किन्तु पश्चानुपूर्वीक्रम से अर्थात्‌ विपरीत क्रम से प्रयोग करना सर्वथा निषिद्ध है] आगमग्धवहारी भागम व्यवहार से ही व्यवहार करते हैं; अन्यश्र तादि व्यवहारों से नहीं--क्योंकि जिस समय सुयं का प्रकाश हो उस समय दीपक के प्रकाश की भावश्यकता नहीं रहती । | जीतव्यवहार तीथं (जहाँ तक चतुविध संघ रहता है वहाँ तक) पर्यन्त रहता है । अन्य व्यवहार विच्छिन्न हो जाते हैं कुप्रावचनिक ब्यवहार-- | अनाज में, रस में, फल में; और फूल में होने वाले जीवों की हिंसा हो जावे तो घी चाटने से शुद्धि हो जाती है ।* जं जस्स पच्छित्त, भापरियपरंपराए भविरुद्ध । जोगा य वहु विगप्पा, एसो खलु जीतकप्पो ॥ --व्यव० भाष्य पीठिका गाथा १२। जं जीयमसोहिकरं, पासत्य-पमत्त-संजयार्ईण्णं । जइ वि महाजणाइन्न, न तेण जीएण ववहारो ॥ जं जीय सोहिकरं, संवेगपरायणेन दत्तेण । एगेण वि आङ्ण्णं, तेण उ जीएण ववहारो ॥ -- स्थव० ॐ० १० भाष्य भाया -७२० । ७२१} १. गाहा--सुत्तमणागयविसयं, खेत्तं कालं च प्प ववहारो 1 होहिति न आइत्ला, जा तित्थं ताव जीतो उ ॥ । --व्यव० १० भाष्य गाधा ५५1 २. अन्नाद्यजानां सत्त्वानां, रसजानां च सर्वेशः 1 - फलयुष्पोद्‌ भवानां च, घृतप्राशो विशोधनम्‌ ॥ -मनु° मल० १११८३ ।




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