राजनय | Rajnay
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
200
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६ राजनय
“श्राचो नृपान् सुबृहतश्च बहुनुदीच:ः
साम्ना युधा च वङ्गान् प्रविधाय येन ।””'
अर्थात् जिसने पूर्व के बड़े-बड़े और उत्तर के बहुत से राजाओं को सामन्
तथा युद्ध से वज्ञ में करके लोक में प्रिय तथा दुलभ राजाधिराज परमस्वामी का
यह दूसरा उपनाम प्राप्त किया है ।
भारतीय नीति में जो चार उपाय--साम, दान, भेद, दण्ड--बताये है उनमें
साम का स्थान प्रथम और प्रमुख है । दोष तीन उपायों का प्रयोग भी अन्त-
राष्टीय सम्बन्धों में किया जाता है कितु वे तीनों राजनयज्ञों के कार्यक्षत्र के बाहर
समझे जाते हैं। यदि कोई राजनयिक प्रतिनिधि इन उपायों की सहायता लेता
है (कम-से-कम दान और भेद की गरण तो बहुधा कई लेते हैं) तो वह अनुचित
भौर अश्वेयस्कर या निद्य ही माना जाता है क्योकि ऐसी अपेक्षा राजनयज्ञ से
मैतिक दृष्टि से नहीं की जाती । हाँ, कई देशों के शासन इन तीनों उपायों को
भी अपनाते हैं किन्तु यह सब प्रत्येक देवा का विदेश-विभाग अपने-अपने ढंग से
करता है; जैसे, इतर देशों को आपत्ति-काल में आर्थिक सहायता देना और इस
प्रकार उन पर प्रभाव डालकर अपने पक्ष में करना, गुप्तचरो की सहायता से
दूसरे देश में शासन के विरुद्ध षइयंत्र कराना, विद्रोह भड़काना, आर्थिक सहा-
यता आदि बन्द कर देना, घेरा डालना, युद्ध करना आदि । एक समय तो ऐसा
था जब कि यूरोप में राजदूत वह माना जाता था जो दूसरे देश में जाकर स्वदेश
की भलाई के लिए झूठ वोले । उन दिनों आवागमन के साधन इतने द्रतगामी
नहीं थे कि दूर देवा में पहुँचकर राजदूत हर काम के लिए अपनी सरकार से
परामदो कर सकता ओर दूर देदा मं बैठे-वैटे अपनी सरकार. से सम्बन्ध स्थापित
कर सकता, जैसा कि आज के टेलीफोन ओर तार के युग में संभव ह । इसलिए
अपने देश की भलाई के लिए-वह जो कु भी ओर जिन उपायों के द्वारा भी
कर सकता था--सव करता था । सफलता ही उसकी योग्यता की कसौटी समझी
जाती थी, उसके द्वारा अपनाये गये उपाय नहीं; किन्तु अब वैसा नहीं रहा ।
१ “उत्कीर्ण लेखान्जलि”, सम्पादक--श्री जयचन्द विधालंकार, प्रकाशक--मास्टर
खेलाड़ीलाल एण्ड सन्स, संस्कृत वुकाडिपो, कचौड़ी गली बनारस, ( तृतीय संस्करण,
सं २०८०८ वि © )
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