प्रेम - द्वादशी | Prem - Dvadashi

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Prem - Dvadashi by प्रेमचंद - Premchand

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प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनक

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शांति १९७ गुस्सा तुम्हीं पर उतरेगा । उन्हें पता नहीं कि जिस आब-हवा में उन्होंने अपनी जिंदगी विता है, वह अब नहीं रही । बिचार-स्वात॑त्रय और समयानुकूलता उनकी दृष्टि में अधम से कम नहीं । मैंने यह उपाय सोचा है कि किसी दूसरे शहर, में चलकर अपना अड्डा जमाऊँ । मेर वक्रातत. भी यहाँ नहीं चलती । इसीलिये किसी बहाने की भी द्ावश्यकता न पड़ेगी ।*' मे इस तजवीज के विरुद्ध कुछ न बोली । यद्यपि श्रे अकेले रहने से भय लगता था, तथापि वहाँ स्वतंत्र रइने की आशा ने मन को प्रफुल्लित कर दिया । ( हे ) उसी दिन से श्रम्मा मे मुमसे बोलना छोड़ दिया + मददरियों, पड़ोसियों शरोर ननदो के अगे मेसं परिहास किया करतीं । यह मुझे बहुत बुरा मालूम होता था । इसके बदले यदि वह कुछ भली-बुरी बात कह लेती, तो मुझे स्वीकार था । मेरे हृदय से उनकी मान-मर्यादा घटने लगी किसी मनुष्य पर इस प्रकार कटाक्ष करना उसके हृदय से अपने आदर को मिटाने के समान है । मेरे ऊपर सबसे गुध्तर दोषारोपणु यह था कि मैंने बाबूजी पर कोई मोहन-मंत्र फूक दिया है, वह मेरे इशारों पर चलते हैं । पर यथार्थ में बात उलटी ही थी । भ्रमास था । जन्माष्टमी का त्योहार आया । घर में सब लोगों ने व्रत रक्‍खा । मैंने भी सदेव की भाँति घ्त रक्‍खा । ठाकुरजी का जन्म रात को बारह बजे होनेवाला था, हम सब बेठी गाती-बजाती थीं । बाबूजी इन सभ्य व्यवहारों के बिलकुल विरुद्ध थे। वह होली के दिन रंग भी न खेलते, गाने-वजाने की तो बात ही अलग । रात को एक बजे जब मैं उनके कमरे में गई, तो मुझे समझाने लगे--“इस प्रकार शरीर को कष्ठ देने से क्या लाभ ! छूष्ण महापुरुष अवश्य थे, श्र उनकी पूजा करना हमारा कर्तव्य है । पर इस गानि-बजाने से कया फ़ायदा १ इय ठौ




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