ऋग्वेद हिन्दी भाष्य | Rigved Hindi Bhashy

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Rigved Hindi Bhashy  by महर्षि दयानन्द सरस्वती - Maharshi Dayanand Sarasvati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है कग्वेद: मं० १1 थक १1 सुन ४,४६४ ६ तिनि ं 1 पा क ध है कि--हे १ द ¦ प्रष्ठी. अकार न करेगा, तच तक दुः प भ्रति कभीमहोगी, इस से तु परोपकार करने बाला सदा होगे | शत काम के भरत करने वाले जीच को आशीर्वाद कफ्रौन देता है, इस बात का अक्षा अवते मर्ते किमाह आ त्वां पिभन्त्वाशवः सोमांस इन्द्र गिणः । वन्तं सनतु भवैतसे ॥७ यथार्थ -- ड धाक ( तिः ) प्रशसा के योग्य कर्म करने वाले ( इन हिद्रन जीव ! ( भाशंब' ) तरेगादि शरश सहित सब क्रियाशो से व्याप्त ( सोमास सब पदार्थ ( हवा ) लुक की ( क ) प्राप्त हा, तथा इन पदार्थों को प्राप्त हुए ( न शास बते ( लें ) तेरे ( शम्‌ ) ये सब पदार्थ मेरे भ्सुप्रह से सुख करने वाले ( श्तु ) हो ॥ ७ 1) स्तथायें--ईर्वर ऐसे 1 की झाशीर्याद देता है कि जी मनुष्य विषान्‌, वरोपकारी होकर सरी प्रकार सद्योग' करके इन सब पदार्थों से उपकार ग्रहण करके सब प्राणियों को सुखयुक्त करता है, बह्दी सदा सुख को प्राप्त होता है, भन्य कोई नहीं की ७ ॥ थर मे खक अर्य के ही प्रकाश करने चाले इ शास्य का अगर मन्त्र मे भी जका किया है-- श॑तक्रतो |. ख स्वां स्तोभ ववीदृभन्‌ त्वासुक्था शतक्रतो । त्वां व॑धन्तु नो गिरः ॥८ वदार्थ--हे ( शतकतों ? भरसक्यास कमो के केरमे शरीर अनन्त विज्ञान के जानने वाले परमेश्वर । जने ( स्तोभाः ) वेद के स्तोध्र तथा ( उक्था ) प्रशमनीय स्तोत्र भापको ( भशोगुभम्‌ ) सत्यरत प्रसिद्ध करते हैं, बैसे ही ( स' ) हमारी (गिर ) विद्या प्ौर सर्य-माषसयुक्त बाणी मौ { त्वाम्‌ }) भापको ( बर्षनतु ) प्रकाशित करें ॥ में 1 की आजार्थं-- जो विशव मे भृथिवी, भूय्यं भादि प्रत्यक्ष श्रौर श्रप्नस्यक्ष रचे हुए पदाथ हैं, बे संब जेगतू की उत्पत्ति करने वाले तथा धन्यवाद देन कै योग्य परमण्बरही को प्रसिद्ध करके जनति हैं कि जिस में न्याय झौर उपकार श्रादि ईश्वर के गुर को हमची प्रकार जानके घिह्वानू भी वैसे ही कर्मों में प्रबुत्त हो ॥ ८ ॥। धह जगदीह्यर हमारे लिए क्या करे, लो अगले मन्त्रे वंन किया है -- अक्षितोतिः सनेदिमं शाजमिन्द्र सहलतिण॑म्‌ । यस्मिन्‌ िन्वानि पोस्यां ॥९ पदां -जो ( भक्षिलोतिः ) नित्य ज्ञान वाला ( इः ) सब ऐश्वर्य्य युक्त परमेश्वर है, वह एप कर्के मारे लिए ( यस्मिन ) जिस व्यवहार मे ( विष्वानि ) सब ( पौस्था ) पृरषाथं से युक्त यल है (इमम्‌ ) एम ( सह्िराम्‌ ) भ्सख्यात सुख चैते वामे ( शान्‌ ) पदार्थो के विज्ञान को ( सनेलू ) सम्यक सेवन कराये कि जिससे हम लॉग उत्तमनउसम सुखो को प्राप्त हो ॥ ६ ॥ भावा --जिम की सत्ता से ससार के पदार्थ बलवान होकर भ्रपने-प्रपने व्यष- हारो में वर्तमान रै, उन राब बल श्रादि मृणा से उपकार लेकर वि्य के नाना प्रकार के सुख भीगते के लिए हम लोग पूरा पुरुषार्थं करे, तथा ईण्वर देम प्रयोजन में हुमारा महाय करे, इसलिए हम लोग ऐसी प्रार्थना करते है ॥ ६ 1! किस की रक्षा से पुरुषार्थं सिद्ध होला है, हस विषम का प्रकाश ईदवर ने अगले अश्वम कपा है-- मा नो मत्तौ अभिद्र तनलामिनद्रगिवेणः । ईशानो यवा वेधम्‌ ॥१० पदाथ- हि ( पिष ) वेद वा उसम-उत्तम शिक्षा से सिद्ध की हुई वाशियों के द्वारा सेषा छः सोग्य सवंगक्तिमान्‌ (इनत) स के रक्षक ( ईशान } परमेश्वर 1 भराय {चः} हमारे ( तशरूलाम्‌ ) प्ररीरो का ( वधम्‌) माश, दोप सहति (मा) कमी मते ( पप ) कीजिए तथा भापके ठषदेशस | सर्लाः ) ये सब मनुष्य लोग भी (नः) हमसे ( माभिषरहम्‌ ) वेरकभीन करे ॥ १०॥ भावार्थं -- कोई मनुष्य प्रन्यायसे किमी प्राणी को मारने फी दष्छा न करे, अर सब मित्र भाव से वत्तों, क्योकि जेसे परमेश्वर विना श्रपराध के किसी का नहीं करता, वैसे ही सब मनुष्यों को भी करना चाहिए ॥ १०॥ दस परम सूक्त की धिया से मनुष्यों को किस प्रकार पुरुषाथ भ्रौर सब का उपकार करना चाहिए इस विंभय के कहने से घोधे सुक्त के अर्थ क॑ साथ इसकी सज़ति जानती चाहिए । चह पांच सूक्त भौर दशा वर्ग समाप्स हुआ ॥ 9 झ पशक्थत्य थवतस्य सुक्तस्य मधुच्छादा ऋषि । १-२ इस; ४ ६, ०, € , शष्तः; ५, ७ अशत ददथ; १० दशादच देवता: । १, २, ५--७, ९, १० पादी; २ निरादणायकरी; ४, च निधष्रामन्री च छन्दः । परक्लः स्वरः ५। रुरा प्रथन भतम म यथायो काण्य स किस भकार ले किन.किन , पाथो को संधुष्त करना हिर, इं निजयः का उपदे किशरा है-- युनि भ्रपरयतषं चरनं परि तस्दुषः ! रोचन्ते रोधना दि ॥ १ ॥ | ` क्यो सुष्य ( अश्वम्‌ ) अद्ु-मङग ने ब्यात होते गले हिसारहित ॥ 180 4| ५ ॥ ५ ५ पद ॥ । ४ 1111111 1111111 संघ सुख को करने ( श्ररन्सम्‌ ) सब जगत्‌ को जायने वा सव म व्याप्त ( परितस्थुषः) सज भनुष्यं ब्रा स्थावर जङ्कम पद्यं श्रौर चराचर जगत्‌ में च हो रहा है ( ष्मम्‌ ) उस महान परमेश्वर को उप्रासभा योग दारा प्राप्त होते हैं, बे ( दिधि ) प्रकाशरूप परमेश्वर भ्रौर बाहः सूयं वा पवन के बीच मे ( रोचनाः ) शान्‌ से प्रकाशमान होके { रोचन्ते ) भ्रानन्दमे प्रकाशित होते है। वथा शौ मनुष्य ( अस्‌ } जह्य देशा मे ङ्प का प्रकाश करने तथा पग्नि शूप होने से लाल यु ( जर्म्तम्‌ ) सवत्र गमन करने बलि ( श्रष्नम्‌ ) महान्‌ सूयय प्रौर ब्रग्नि को विद्याम ( परिद्ुभ्भन्ति ) सथ प्रकार ते युक्त करते हैं, वै जैसे (दिवि) पूर््यादि के गुणो के प्रकाण मे पदाय प्रकाशित होते है, व (रोषा लेजम्वी हके { य ) नित्य उत्तम-उत्तम झामन्द से प्रकाशित होते हूँ १ ॥ भावार्थ --जो नोग विद्या-मम्पादन्‌ मे निरन्तर उद्योग करमे जाले ह्वोते हैं, वे ही सब सुखा को प्राप्त होते है। इसलिए को उचित है कि पृथिवी पादि पदार्थों से उपयोग लैकर सब प्राणियों को लाभ प कि जिस से उनको भी सम्पूर्ण सुख मिरें ॥ १ ॥ जकत सुर्र्स भौर झरिन लादि के कसे गुण हैं, भर वे कहां-कहाँ उपयुक्त करने पोग्य हैं, सो अगले मग्त्र में उपयेदा किया ¶ै--- युखन्त्य॑स्य कम्य हरी पिप॑त्सा रयें । शोणा धृष्णू वृषाहेसा ॥ २ ॥ पदार्थ - जो धिद्रान्‌ ( अम्य) पूय गौर श्रॉग्नि के ( कास्या ) सय के इच्छा करने योग्य ( जोर ) भपन-मपने अर्या के प्रकाश करनेहारे वा गमन के हेतु भूषण । दृढ ( विपक्षसा ) बिविध कला श्रौर जल के लक्र घूमने वाले पाँखिरूप यन्प्ये से दे ( सूवाहसा ) श्रन्छी प्रकार सर्वार्यि में जुड़े हुए मनुर्याद्को का वैश दणान्सर में पहुँचाने वाले ( हरी ) भ्ाकर्षसा और बेग नथा शुषलपक्ष और कृप्तपक्ष रूप दो थोड़े जिन से सबभा हुरसा किया. जोता हैं, इत्यादि श्रेष्ठ गुर्गों को पृथियी, जन ध्रीौर प्राकाण म नान-प्नान कै लि प्रपमे-भ्रपने रथो मे ( युञ्जन्ति) जाह ।। २॥ भावार्थ - ईएवर उपदेष कनता है कि-- मनुष्य नोग जब्रसकं भू, जल श्रादि पदार्थों के गुर, शान श्रौर उन के उपकार से भू, जल झौर घ्रकाण में जाने-श्रातें के नि श्रच्छो सत्रारिमो क नहीं बनाते, तब तक उनको उनम राज्य श्रौर धन प्रादि उत्तम सुख नही मिल नक्ते । २॥ जिसने ससार के सव पडायं उत्पम्न किये है, बह कंसा है, यह बात अगले मस्त में प्रकादिल की है - केतुं कृणवन्नकेतवे पेश्ञों मर्य्या अपेकर्से । समुषद्धिरजायथाः ॥ ३ ॥ वदां - (सर्प्या) ह मनुष्य लोगो । जो परगाप्मा ( अकेतवे ) ब्रज्ञानसू्पी प्रन्धकार के विनाशक निए ( केतुम्‌ ) उत्तम ज्ञान, शरीर ( अवेक्षे ) निर्भनता हारिद्रय तथा कुपन्य विनाश के निए ( वैक्ष. ) सुवणं श्रादि घन भौर श्रेष्ठ रुप को { कृष्वनु } उरपन्य करता हैं, उसको तथा राब विद्याओं वात ( समुर्दद्धि, ) जो ईश्वर की श्रा्ञा के प्रमुकूल वर्तने वाले है उनसे भिलनमिलकर ज़ानेके ( अजायया ) प्रसिद्ध हुजिए । तथा है जानने की इच्छा करने वाले मनुष्य ' तू भी उस परमेश्वर के समागम से ( अजायथा' ) इस विधा को पथागत्‌ प्राप्तेषु ॥३॥ भाषार्थ-- मनुष्यों को प्रति रात्रि के चौथे प्रहर मे झालरय छोड़कर फुरती से उठकर श्रशान झौर दरिद्रता के विनाश के लिए प्रयत्न वाले होव रे तथा परमेश्वर के जान श्ौर ससारी पदार्थों से उपकार सेनेकं लिए उत्तम उपाय सदा करना चाहिए ॥ है 1 अगले मन्त्र मे वायु के कर्मों का उपदेह किया है - १ पुनंग ष रिरि आदं स्वधामनु पुन॑गभतवमररिरं । दधाना नाम यत्तियम्‌ ॥ ४ ॥ पद्वा्थ-- जेस ( मर्त ) चायु ( लाम ) जसं रौर ( यक्लियम्‌ ) यश्च के योग्य देण को ( वाना ) सव पदार्थो क) धारण कियिष्ए ( पुन ) फिरपिः ( अलोम ( पर्भत्वम्‌ ) उनम समृहरूपी यभ का ( एरिरे ) सव प्रकार से प्राप्त होते कपाते, वैमे ( प्रात्‌ ) उसमे, उपरान्त बर्षा करत है, ऐसे ही चार-बार जला को चढ़ाने, वर्षाति ४॥ शाबार्थ--ज। जल मसृर््य वा ध्रग्नि के सयाग से सोटा-दाटा &ो जाना है, उस नं धारण बर श्र मेघ के प्राकार का बना के वायु ही उसे फिर-फिर ब्पषति है, उसीसे सब का पानन श्ौर सब को सुख होता है ॥। ४॥ छम पथमो के साथ सूर्य बया करता है, सो अगले स्तर मे उपदेहा किया है -- मीढ चिंदारुजत्तुभियुहां चिदिन्द्र वहिंसिः । अविन्द उस्रिया जनुं ॥५॥। पवां -- ( जित्‌ ) जेसे मनुष्य लोग झंपने पास के पदार्थों को उठाते भरते हैं, ( भित्‌ ) बने ही सूर्य्य भी ( बीछु ) दृष् बल से ( उसिया: ) अपनी किरणों के ढ्वारा ससारी पदार्थों कों ( अधिन्द' ) प्राप्त होता है, ( अबु ) उसके भ्रमन्तर य उनको छेदन करके ( आरेजल्मुभिः ) मड़ू करने और { वह्किभि. ) प्रकाणप्रादि देशी में पहुँचाने वालें पत्रन के साथ ऊपर वीचे करता हुआ ( गुहा ) प्रन्तरिक्ष भर्थात्‌ पोल में सदा चढ़ाता-गिराता रहता है ॥ ४॥ झावार्थ--इस मन्त्र मे उपमालशारहै। जैसे बलवान पवन धपते त्रेगसे भारी भारी दृढ़ बसों को तकोज-फोड ढालते घोर उनकों ऊपर सीचे-शिराते रहते हैं, वैसे ही का भी झपनी किरणों से उनका छेदन करता रहला है, इस से वे ऊपर-नीचे गिरते रहते हैं । इसी प्रकार ईपबर के निशम से सब पदार्थ उत्पत्ति भौर विनाश को भी प्राप्त होते रहते द! ५॥ यह ग्यारह गं समाप्त मा ॥।




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