हंस | Hans
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
70 MB
कुल पष्ठ :
817
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)यथार्थवाद् भौर छायावाद ६९७
किं हमारे लिए दुख श्रौर कष्टो के कारण प्रचलित नियम श्रौर प्राचीन सामाजिक रूद़ियाँ हैं
फिर तो श्रपराधों के मनोवैज्ञानिक विवेचन के द्वारा यह भी सिद्ध करने का प्रयत्न होता है कि वे सब
समाज के कृत्रिम पाप हैं । अपराधियों के प्रति सहानूभूति उत्पन्न कर सामाजिक परिवर्तन के सुधार
का श्रारम्भ साहित्य में होने लगता है । इस प्रेरणा में श्रात्म निरीक्षण आर शुद्धि का प्रयत्न होने
पर भी व्यक्ति के पीड़न, कष्ट श्रौर अपराधों को समाज से परिंचित कराने का प्रयत्न भी होता है
श्मौर यह सब व्यक्ति वैचित्र्य से प्रभावित होकर पल्लवित होता है। स्त्रियों के सम्बन्ध में नारीत्व
की दृष्टि ही प्रमुख होकर, मातृत्व से उत्पन्न हुए सब सम्बन्धो को तुच्छ कर देती है। वतमान युग की
ऐसी प्रवृत्ति है । जब मानसिक विश्लेषण के इस नग्न रूप में मनुष्यता पहुँच जाती है तब उन्हीं
सामाजिक बन्धनों की बाघा घातक समक पड़ती है श्रोर इन बन्धनों को कृत्रिम श्रौर श्रवास्तविक
माना जाने लगता है । यथाथ॑वाद ज्लुद्रों का ही नहीं श्रपितु महानों का भी है । वस्तुतः यथार्थवाद
का मूल भाव है वेदना ; जब सामृदिकि चेतना छिन्नभिन्न होकर पीड़ित होने लगती है तब वेदना
की बरिवृति श्रावश्यक हो जाती हैं। कुछ लोग कहते हैं साहित्यकार को श्राद्शवादी होना ही
चाहिए श्र सिद्धान्त से ही श्रादर्शवादी धार्मिक प्रवचनकर्ता बन जाता है । वह समाज को कैसा
होना चाहिए यदी श्रादेश करता है । श्रौर यथाथंवादी सिद्धान्त से दी इतिहासकार से श्रधिक कुट
नहीं ठहरता । क्योकि यथाथ॑वाद इतिहास की सम्पत्ति है। वह चित्रित करता है कि समाज कैसा
श्या था। किन्तु साहित्यकार नतो इतिहास कर्ता है श्रौर न धर्मशास्र प्रणेता । इन दोनों के
कतंव्य स्वतंत्र हैं । साहित्य इन दोनों की कमी को पूरा करने का काम करता है। साहित्य समाज
की वास्तविक स्थिति क्या है इसको दिखाते हुए भी उसमें श्रादशंवाद का सामञ्जस्य स्थिर करता
दै | दुःख दग्ध जगत शरोर श्रानन्दपूणं स्वगं का एकीकरण? साहित्य है । ह सलिए श्रसत्य श्रधटित
घटना पर कल्पना को वाणी महत्वपूणं स्थान देती है । जो निजी सोन्दय्यं के कारण सत्य पद पर
प्रतिष्टित होती है । उसमं विषश्वमंगल की भावना श्रोतप्रोत रहती है ।
सांस्कृतिक केन्द्रों में जिस विकास का श्राभास दिखलाई पड़ता है वह महत्य श्रौर
लघुत्व दोनों सीमान्तोँ के बीच की वस्तु हे । साहित्य की श्रात्मानुभूति यदि उस स्वात्म श्रमिव्यक्ति,
श्रमेद श्रौर साधारणीकरण का संकेत कर सके तो वास्तविकता का स्वरूप प्रकट हो सकता है ।
हिन्दी म इस प्रवृत्ति का मुख्य बान गय साहित्य ही बना ।
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कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना श्रथवा देश-विदेश की सुन्दरी के
वाह्य बणुन से भिन्न जब वेदना के श्राघार पर स्वानुभूतिमयी श्रमिव्यक्ति होने लगी तब हिन्दी में
उसे छायावाद के नाम से श्रमिहित किया गया । रीतिकालीन प्रचलित परम्परा, से जिसमें वाह्य-
वर्णन की प्रधानता थी--इस ढंग की कविताओं में भिन्न प्रकार के भावों की नये ढंग से श्रभिव्यक्ति
हुई । ये नवीन भाव श्रान्तरिक स्पशं से पुलकित थे । श्राभ्यन्तर सूचम भावों की प्रेरणा बाह्म स्थूल
श्राकारमे भी कुष्ं विचित्रता उत्पन्न करती है । सद्म श्राभ्यन्तर भावों के व्यवहार में प्रचलित
पदयोजना श्रसफल रही । उनके लिए नवीन शेली, नया वाक्यविन्यास श्रावश्यकथा। हिन्दी
म नवीन शब्दौ की भगिमा स्पृहणीय श्राभ्यन्तर वंन के लिए प्रयुक्त ने लगी । शब्द विन्यास
में ऐसा पानी चढ़ा कि उसमें एक तड़प उत्पन्न करके सूचूम श्रभिष्यक्ति का प्रयास किया गया।
भवभूति के शब्दों के श्रनुसार--
ठयतिषजति पदार्थानान्तरः कोपि दहेत
न खलु बहिङपाधीन प्रीतयः संश्रयन्ते |
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