माघकवि | Maaghakavi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2.57 MB
कुल पष्ठ :
102
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)काव्य-कथानक / १४ कि शिशुपाल के सौ अपराधों को सहुूँगा उसका भी तो प्रतिपालन करना हैं। इस- लिए अजातशत्रु की राजधानी की ओर ही सभी राजाओं को पहुँचने की प्रेरणा अपने चरों से दिलवाओ | वहाँ पाण्डुपुत्र जब तुम्हारे प्रति विशेष भक्ति दिखाएंगे उस समय ये मत्सरी राजगण स्वयं वैरपूर्ण हो उभड़ पड़ेंगे । फिर वहाँ अपने मित्र लोग उनसे पृथक हो जाएंगे। अपने सहज चापत्य दोष से शत्रुगण स्वयं तुम्हारी प्रतापार्नि में शलभ बन जाएंगे । ट्वारिका से इत्द्रप्रस्थ को प्रस्थान जैसे सु उत्त रायण से दक्षिणायन होते हैं उसी प्रकार युयुत्सा को त्यागकर सौम्प श्रीकृष्ण ने इन्द्रप्रस्थ के लिए पूरी तैयारी से प्रस्थान किया । उनके पीछे उनकी चतुरंगिनी सेना चली । प्रस्थान करते हुए मनोरम मुरारि को देखने के लिए नगरी की प्रत्येक सड़क पर जनसमूह उमड़ पड़ा--प्रीति चिरपरिचित वस्तु को भी नवीन-सी बना देती है । सेना की सघन भीड़ के कारण धीरे-धीरे चलते अपने रथ की गति को श्रीकृष्ण न जान पाए क्यों कि वे ढ्ारिका नगरी की शोभा देखने में तल्लीन थे जिसके निवासियों के पास इतना और ऐसा वैभव था कि जिसकी मन कश्पना भी नहीं कर सकता था तथा सुत्दरी ललना के ललाट- तिलक की भाँति जिसकी श्रीसमृद्धि को श्री कृष्ण स्वयं बढ़ा रहे थे । नगर से बाहर आकर उन्होंने सागर के तट पर स्थित सागर-जल में प्रति- बिम्बत वृक्षों की शोभा देखी। सागर मानों युगान्तबन्धु कृष्ण की अभगवानी के लिए अपनी उत्तुंग तरंग-रूपी बाहुएँ फैला रहा था। श्रीकृष्ण के सैनिक लघवंग की माला पहिनते नारियल का पानी पीते तथा ताजी सुपारी का आस्वाद लेते हुए समुद्र का भआतिथ्य पा रहे थे। धीरे-धीरे श्रीकृष्ण की सेना भागे बढ़ी । रेवतकगिरि-रम्यता सा में श्रीकृष्ण ने उन्नतशिखरों वाले पब॑त रैवतक को देखा--जो अनेक बार दृष्टपूर्व भी श्रीकृष्ण के विस्मय का कारण बना । वस्तुत वही रमणीयता है जो प्रतिक्षण नवीन लगे। सारयि दारुक ने पर्वत के उच्च शिखर निक्र मेघ- मण्डल स्फटिकशिलाओं पुष्पभा रावनतवृक्ष राजि लताओं पक्षिगण रत्न राशि चमरियों पदिमनिओं प्रवहमान नदियों समाधिरत योगीजनों विशाल सरोवरों आदि का सरस एवं प्रौढ़ वर्णन किया | गिरि-विश्वाम जिसे सुनकर श्रीकृष्ण ने वहां विश्राम करना चाहा । अतः सेना उस पव॑त की
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